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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
हैं, परम सुखी हैं, सुखपूर्वक जीते हैं। मिथिला जल रही है, इसमें हमारा कुछ भी नहीं जल रहा है ।"
महारानी ने देखा उसका उपाय निष्फल गया । उसने और भी वैसे उपाय किये, किन्तु, वह सफल नहीं हो पाई । यह तो हुआ, किन्तु महारानी ने, रानियों ने, लोगों ने राजा का पीछा नहीं छोड़ा। साठ योजन पर्यन्त वे राजा के पीछे-पीछे चलते गये । बोधिसत्त्व उत्तर हिमालय की तरफ चले जा रहे थे ।
तब हिमालय की स्वर्ण- गुफा में एक तपस्वी निवास करता था । उसका नाम नारद था। वह पाँच अभिज्ञाओं तथा ध्यान के आनन्द में निमग्न था। एक सप्ताह व्यतीत होने पर उसने अपना ध्यान खोला । वह उठा । हर्षातिरेक से उसके मुख से निकला – “अहो सुखम्, अहो सुखम् — ध्यान का आनन्द कितना तुष्टिप्रद है ।"
नारद विचार करने लगा - इस जम्बूद्वीप में क्या और भी कोई ऐसा है, जो ऐसे सुख की गवेषणा में अभिरत हो । उसने दिव्य नेत्रों से पर्यवेक्षण किया तो उसे प्रतीत हुआ कि राजा महाजनक के रूप में बोधिसत्त्व उत्पन्न हैं। उसने यह भी जाना कि राजा ने राज्यवैभव का परित्याग कर दिया है। महारानी सीवळी देवी, सात सौ रानियाँ तथा लोग रोके नहीं जा सके हैं। वे सब राजा महाजनक के पीछे-पीछे चले जा रहे हैं। नारद को शंका हुई, बोधिसत्त्व के महा अभिनिष्क्रमणों में कहीं ये विघ्न रूप न हो जाएं। वह ऋद्धि-बल से आकाश में अधर अवस्थित हुआ तथा राजा महाजनक को उपदेश दिया । उपदेश देकर वह आकाश मार्ग द्वारा अपने आवास-स्थान पर चला गया ।
नारद की ज्यों मिगाजिन नामक एक अन्य तपस्वी भी ध्यान साधना में निमन था । उसने भी ध्यान से उठने पर महाजनक को उपदिष्ट किया, उसे अप्रमत्त रहने का सन्देश दिया ।
महाजनक अपने संकल्प पर सुदृढ़ था ही। इन तपस्वियों के उपदेश से वह और लाभान्वित हुआ। महारानी सीवळी देवी ने देखा कि राजा किसी भी तरह वापस लौटना नहीं चाहता तो वह उसके चरणों पर गिर पड़ी और कहने लगी- "स्वामिन् ! राजकुमार का राज्यासीन कर आप प्रव्रजित हों, जिससे आपकी प्रजा आश्वस्त रहे । "
महाजनक ने कहा- "महारानी ! मैंने राज्य का, सर्वस्व का परित्याग कर दिया है । मुझे विश्वास है, राजकुमार दीर्घायु मिथिला का शासन मली-भाँति चला सकेगा । मैं वापस नहीं लौट सकता ।"
कुमारिका के कंकण
महाजनक तथा सीवळी वार्तालाप करते हुए नगर के दरवाजे पर पहुँचे । वहाँ बच्चे खेल रहे थे । एक बालिका के एक हाथ में एक कंकण था तथा दूसरे हाथ में दो कंकण थे । वह बालू को अपने हाथों से बालू थपथपा रही थी । उसके जिस हाथ में एक कंकण था, वह आवाज नहीं करता था। जिस हाथ में दो कंकण थे, वे आवाज करते थे । राजा ने रानी को समझाने का यह उचित अवसर जाना । उसने बालिका को सम्बोधित कर कहा"कुमारिके उपसे निये निच्चं निगळमण्डिते । कस्मा ते एको भुजो जनति एको न जनति भुजो ॥'
१. गाथा १५८
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