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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-नमि राजर्षि : महाजनक जातक ५९६ आये होंगे। प्रव्रजित वेष में राजा महल से नीचे उतर आया। रानियाँ महल के भीतर गईं। राजा के शयन-कक्ष में शय्या पर उसके बाल कटे पड़े थे, शृंगार की साज-सज्जा का सामान बिखरा था। महारानी ने यह देखकर अनुमान लगा लिया कि जिसे वह तथा रानियां प्रत्येक बुद्ध समझे थीं, वह प्रत्येक बुद्ध नहीं था, राजा ही था। उसने अपनी सपत्नियों से कहा"चलो, हम राजा को मनाएं, आकृष्ट करें, रोकें।" वे सब नीचे आंगन में आईं । सबने अपने सिर के केश खोल लिये, उन्हें अपनी पीठ पर फैला लिया। छाती पीटने लगी, अत्यन्त शोक पूर्ण, विषादपूर्ण स्वर में कहने लगीं"महाराज ! रुकिए, ऐसा मत कीजिए। आपके वियोग में हमारी क्या दशा होगी, कुछ तो सोचिए।" रानियों को जब इस प्रकार रोते-बिलखते देखा तो समस्त नागरिक भी उसी प्रकार रोने-पीटने लगे। नगर का वातावरण बड़ा दुःखपूर्ण हो गया। राजा इन सब स्थितियों के बावजूद अपने संकल्प से विचलित नहीं हुआ। एक और उपक्रम महारानी सीवळी देवी बहुत रोने-पीटने, चीखने-चिल्लाने पर भी जब राजा को नहीं रोक सकी तो उसने एक उपाय निकाला। उसने सेनाध्यक्ष को बुलाया और उसे आदेश दिया-"जाओ, राजा जिस ओर चला जा रहा है, उससे आगे-आगे पुरातन गृहों, जीर्ण मकानों, घास-फूस आदि में आग लगवा दो, खुब धुआं करवाओ।" सेनाध्यक्ष ने महारानी के आदेश का पालन किया। आग धधकने लगी, आकाश में धूआँ छा गया। महारानी सीवळी राजा के समीप पहुँची, उसके चरणों में गिर पड़ी, करुण स्वर में बोली "वे स्मा अग्गिस्मा जाला कोसा उगृहन्ति भागसो । रजतं जातरूपञ्च मुत्ता वेलुरिया बहू ।। मणयो संखमुत्ता च वत्थिकं हरिचन्दनं । अजिनं दन्तमण्डं च लोहं काळायसं बहु । एहि राज ! निवत्तस्सु मा ते तं विनसा धनं ।' मिथिला नगर के घरों में आग लग गई है। उससे लपटें निकल रही हैं। राज्यकोश जलते जा रहे हैं । रजत, स्वर्ण, मोती, वैडूर्य, शंख, विविध रत्न, कपड़े, पीत चन्दन, चमड़े की चीजें, हाथी दांत के पात्र, सामान, लोह-निर्मित वस्तुएँ, ताम्र-निर्मित वस्तुएँ अग्नि में भस्मसात हो रही हैं। राजन् ! आप आएं। इस अग्नि-काण्ड को रोकें, जिससे आपकी सम्पत्ति ध्वस्त न हो।" बोधिसत्त्व ने कहा- "देवी ! तुम क्या कहती हो? सुनो.. सुसुखं वत जीवाम येसं नो अस्थि किञ्चनं । मिथिलाय ऊयहमानाय न मे किञ्चि अउयहथ ।। जिनके कुछ अपना होता है, उनका ही जलता है। हमारा कुछ नहीं है, हम अकिञ्चन १. गाथा १२३, १२४ २. गाथा १२५ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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