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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-नमि राजर्षि : महाजनक जातक ५९७ कहा-"मालाकार ! हम उद्यान का निरीक्षण करना चाहते हैं। उसे सुसज्जित करो।" मालाकार बोला-"जो आज्ञा स्वामिन् ! पधारें।"
मालाकार,राजभवन से उद्यान को लौट आया। उसने उद्यान को सजाया, राजा को सूचित किया। राजा गजारूढ हुआ। अपने सामन्तों एवं परिचारकों के साथ उद्यान के दरवाजों पर पहुंचा । उद्यान में प्रविष्ट होते ही उसकी दृष्टि दो आम्रवृक्षों पर पड़ी। दोनों गहरे हरे-भरे थे। एक फलों से लदा था, दूसरा फलरहित था । फलदार वृक्ष के फल आम बहुत मधुर थे, किन्तु, उसके फल अब तक किसी ने नहीं तोड़े थे; क्योंकि राजोद्यान का पहला फल राजा खाए, तदनन्तर ही दूसरे लोग फल तोड़ सकते थे। राजा ने हाथी पर बैठे-बैठे ही एक आम तोड़ा । ज्योंही उसे खाया, उसका रस जिह्वा पर पड़ा, वह दिव्य आस्वादमय प्रतीत हुआ। राजा ने मन-ही-मन कहा, आम का अद्भुत स्वाद है, वापस लौटते समय भर पेट खाऊंगा।
राजा उद्यान में आगे बढ़ गया। पीछे उपराजा से लेकर सामान्य कर्मचारी तकसबने आम के फल खाये। सारे के सारे फल समाप्त हो गये । फल जब नहीं रहे, तब लोगों ने उसके पत्ते तक तोड़ डाले। वृक्ष मात्र एक ढूंठ रह गया। दूसरा वृक्ष, जो फलरहित था, ज्यों का त्यों खड़ा रहा । वह अत्यन्त हरा-भरा, मणियों के टीले जैसा प्रतीत होता था।
राजा उद्यान का निरीक्षण कर वापस लौटने लगा। उसकी दृष्टि उस लूंठ पर पड़ी। उसने अपने सामन्तों से पूछा- 'यह क्या है ?"
सामन्तों ने कहा-"राजन् ! आपने उद्यान में प्रविष्ट होते ही जिस आम्रवृक्ष का फल खाया, यह वही वृक्ष है। आपके फल तोड़ने के बाद सबने उसके फल तोड़े । जब फल नहीं रहे तो लोगों ने उसके पत्ते तक तोड़ डाले। वृक्ष का ऐसा रूप बना दिया। सामन्तों ने साथ ही साथ यह भी कहा-"महाराज ! सामने जो दूसरा वृक्ष खड़ा है, वह ज्यों का त्यों है। उसका कुछ भी नहीं बिगड़ा; क्योंकि वह फलरहित है । फलरहित का कोई कुछ नहीं बिगाड़ता।"
चिन्तन की गहराई में
राजा अन्तर्मुखीन हुआ। उसने सोचा--जिस राज्य का मैं अधिपति हूँ, वह राज्य एक फलयुक्त वृक्ष के सदृश है। प्रव्रजित जीवन फलरहित वृक्ष के तुल्य है। जिसके पास धनवैभव है, सत्ता है, उसे भय ही भय है । जो अकिञ्चन है, जिसके पास कुछ भी नहीं, उसे कोई भय नहीं है। मुझे चाहिए, मैं फलवान् वृक्ष की ज्यों न रहूँ, जो थोड़ी देर में दुर्दशाग्रस्त हो गया । मैं फल रहित वृक्ष की ज्यों बनूं; राज्य, सम्पत्ति, वैभव, ऐश्वर्य सब कुछ छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार करूं।
साधना की देहली पर
राजा के चिन्तन की परिणति दृढ़ संकल्प के रूप में हुई । वह वहाँ से वापस लौटा। महल के दरवाजे पर आया, खड़ा हुआ, अपने सेनाध्यक्ष को बुलाया और उससे कहा"सेनापते ! आज से ऐसी व्यवस्था रखो, केवल मुख-शुद्धि आदि हेतु जल लाने वाले, भोजन लानेवाले मनुष्य के अतिरिक्त किसी का मेरे आवास स्थान में मेरे पास आगमन न हो। राज्य के प्राक्तन न्यायाधीश तथा मन्त्रि गण के साथ तुम राज्य का शासन संचालित करते
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