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तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
कथानुयोग-नमि राजर्षि : महाजनक जातक
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राजा के अन्त्येष्टि सम्बन्धी समस्त कृत्य हो चुकने के बाद सातवें दिन उसके मन्त्री एकत्र हुए। उन्होंने राजा द्वारा प्रकटित भावना के अनुरूप यह जानने का प्रयास किया कि राजकुमारी सीवळी किसे पसन्द करती है । उन्होंने राज्य के सेनापति, कोषाध्यक्ष, श्रेष्ठी, छत्र ग्राह, असीग्राह को क्रमशः राजकुमारी के पास उसकी पसंदगी की दृष्टि से भेजा। राजकमारी ने उन सबको अयोग्य करार दिया।
जब अमात्यों ने यह देखा कि उन द्वारा प्रेषित विशिष्ट जनों में कोई भी ऐसा पुरुष नहीं निकला, जो वैसा गुण-सम्पन्न हो, जैसा राजकुमारी चाहती है, वे बड़े चिन्तित हुए। विचार करने लगे, राजा के बिना राज्य का संरक्षण, परिरक्षण संभव नहीं होता, बड़ी कठिनाई है, क्या किया जाए ? राजपुरोहित को एक उपाय सूझा । उसने कहा- आप लोग चिन्ता न करें। उपयुक्त, सुयोग्य राजा प्राप्त करने के लिए हमें पुष्यरथ छोड़ना चाहिए। पुष्यरथ के माध्यम से प्राप्त राजा सारे जम्बूद्वीप पर राज्य करने में सक्षम होता है।"
मन्त्रियों ने राजपुरोहित का प्रस्ताव स्वीकार किया। नगर को सजवाया। मंगलरथ तैयार करवाया। उसमें कुमुद वर्ण के चार अश्व जुतवाए। उस पर चंदवा डलवाया। रथ में राजचिह्न रखवाये। उसके चारों ओर चातुरंगिणी सेना का नियोजन किया । ऐसी परंपरा थी, जिस रथ में रथ का स्वामी विद्यमान हो, वाद्य-ध्वनि उसके आगे होती। जो रथ स्वामी रहित हो, रिक्त हो, गाने बाजे उसके पीछे चलते। अतः रथ को आगे किया, वाद्य-वादक उसके पीछे हुए । रथ को स्वर्णमय भृगारक से जलाभिषिक्त कर कहा-जो राज्य करने का पण्य, भाग्य लिये उत्पन्न हुआ हो, उसके पास जाओ। रथ ने राजभवन की परिक्रमा की और वह वहाँ से चल पडा। सेनापति आदि जो भी उच्चाधिकारी वहाँ विद्यमान थे, उन सबको लांघता हुआ वह पुष्यरथ नगर के पूर्वी दरवाजे से बाहर निकला तथा बगीचे की ओर बढ़ा।
रथ तेजी से जाने लगा। लोगों ने जब उसे यों द्रुत गति से जाते हुए देखा तो कहा, इसे रोक दिया जाए, न जाने यह कहाँ का कहाँ चला जाए। राजपुरोहित ने इसका निषेध किया। उसने कहा-"रथ को मत रोको, चाहे वह सौ योजन दूर भी क्यों न चला जाए, चलने दो।" रथ बगीचे में प्रविष्ट हुआ। वहाँ उसने मंगल-शिला की परिक्रमा की, जिस पर राजकुमार लेटा था। परिक्रमा कर वह वहाँ रुक गया। राजपुरोहित ने देखा, मंगल-शिला पर एक युवक लेटा है। उसने मन्त्रियों को संबोधित किया, कहा-“देखो, यहाँ एक मनुष्य लेटा हुआ है। उसमें राजछत्र धारण करने की योग्यता है या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। परीक्षा करें। शीघ्र ही सभी वाद्य ध्वनित किये जाएं। यदि यह मनुष्य पुण्यात्मा होगा तो उस ओर देखेगा तक नहीं, अपनी मस्ती में सोया रहेगा। यदि यह पुण्यहीन होगा तो वाद्यध्वनि सुन कर भयाक्रान्त हो जायेगा, घबरा उठेगा, काँपने लगेगा।"
पुरोहित के संकेत के अनुसार तत्काल सैकड़ों वाद्य बजाये गये। उनसे निकली हुई ध्वनि ऐसी लगती थी, मानो समुद्र गर्जना कर रहा हो। राजकुमार के रूप में विद्यमान बोधिसत्त्व ने नेत्र खोले । वस्त्र से ढका अपना सिर उघाड़ा, लोगों की ओर दृष्टिपात किया। देखते ही उसे प्रतीत हुआ, ये राजछत्र लेकर यहाँ आये हैं । उसने उस ओर विशेष गौर नहीं किया। पनः अपना मस्तक वस्त्र से ढक लिया। बाई करवट लेट गया। राजपुरोहित उसके समीप आया। उसने उसके पैरों से वस्त्र हटाकर उसकी पगथली के लक्षण देखे । लक्षणों से उसे
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