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________________ तत्त्वं : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-नमि राजर्षि : महाजनक जातक ५६३ विजयोत्साह सोलह वर्ष के होते कुमार ने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद का अध्ययन कर लिया। वह षोडशवर्षीय राजकुमार बहुत ही सुन्दर, आकर्षक व्यक्तित्व का धनी हो गया। उसने अपने मन में विचार किया, मैं अपने पिता का राज्य वापस लूं। उसने अपनी माता से पूछा-"मां ! तुम्हारे पास कोई बहुमूल्य वस्तु, धन आदि है ? मैं अपने पिता का राज्य अपने पितृव्य से वापस लूंगा। यदि तुम्हारे पास कुछ हो तो मुझे दे दो, मैं साधन जुटाऊं। यदि तम्हारे पास क छ न हो तो मैं व्यापार कर धनार्जन करूंगा।" महारानी ने कहा-"तात ! जब मैं अपने राज्य से भागी, तब खाली हाथ नहीं आई। स्वर्ण. मक्ता, मणि, हीरे आदि बहमल्य सामग्री साथ लिये आई, जो मेरे पास यहाँ सुरक्षित है। उनमें से एक-एक मोती, एक-एक रत्न इतना मूल्यवान् है कि ल्य से प्राप्त धन द्वारा पर्याप्त सामग्री जटाई जा सकती है।" कमार यह सनकर प्रसन्न हआ। उसने अपनी माता के पास जो धन था, उसमें से आधा लिया। कुछ व्यापारी समुद्र पार कर व्यापारार्थ स्वर्णभूमि जा रहे थे। राजकुमार महत्त्वाकांक्षी था। उसने विचार किया--मैं भी समुद्र पार कर व्यापार द्वारा इस धन को कई गुना करूं। यों सोचकर उसने माल खरीदा, उसे जहाज पर लदवाया। वह अपनी माता के पास गया और उससे कहा-मां ! मैं अपने पुरुषार्थ द्वारा और धन अजित करने हेतु स्वर्णभूमि जा रहा हूँ।" महारानी ने कहा-"बेटा ! समुद्र पार करना बहुत कठिन है, बड़ा, कष्टसाध्य है। उसमें खतरे बहुत हैं, लाभ कम है, तुम क्यों जाते हो ? राज्य स्वायत्त करने हेतु जितना अर्थ चाहिए, उससे कहीं अधिक अर्थ तम्हारे पास है।" राजकुमार बोला-"मां ! मैं अपने पुरुषार्थ द्वारा और कमाना चाहता हूँ। मैं जाऊंगा, मैंने ऐसा निश्चय कर लिया है।" वह अपनी माता को प्रणाम कर, उसका आशीर्वाद प्राप्त कर वहाँ से उठा, समुद्रतट पर आया जहाज में चढ़ा। उधर मिथिला में राजा पोळजनक असाध्य रोग से पीडित हो गया। उसके बचने की कोई आशा नहीं रही। संकट : सुरक्षा जहाज में सात सौ आदमी बैठे । वह सात दिन-रात चलता रहा । अकस्मात् समुद्र में तूफान उठा, जहाज डगमगा गया। काष्ठपट्ट भग्न हो गये । लोग घबरा गये । बुरी तरह क्रन्दन करने लगे। अपने-अपने इष्ट देवताओं का स्मरण करने लगे, मनौती मनाने बोधिसत्त्व ने, जो राजकुमार के रूप में था, न रुदन किया, न क्रन्दन किया तथा न किसी प्रकार की आकुलता ही व्यक्त की और न किसी देवता को नमन, प्रणमन ही किया। जब उसे यह प्रतीत हुआ कि जहाज जल में डूबने जा रहा है, तो उसने घृत एवं चीनी मिलाकर भरपेट आहार किया। दो चिकने वस्त्रों में तेल चपड़ा। अपनी देह पर उन्हें लपेटा। वह जहाज के मस्तूल के सहारे ऊँचा, ऊपर खड़ा हो गया। जब जहाज समुद्र में निमग्न होने लगा तो वह मस्तूल पर चढ़ गया। डूबते हुए लोगों को मकर और कच्छप खा गये । मनुष्यों के खून से पानी लाल रंग का हो गया। राजकुमार मस्तूल पर चढ़ा था। उसने सोचा--मिथिला नगरी अमुक दिशा में Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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