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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-नमि राजर्षि : महाजनक जातक ५६१ चम्पानगर आया । महारानी ने नगर का परकोटा, दरवाजे आदि देखकर गाड़ीवान से पूछा-"तात ! यह कौन-सा नगर है ?" शक्र—"मां ! यही चम्पानगर है।" महारानी-"तात ! चम्पानगर तो हमारे नगर से साठ योजन की दूरी पर है । वह इतना जल्दी कैसे आ गया ?" शक्र—"मां ! मुझे इसके सीधे मार्ग का ज्ञान है। मैं सीधा चला आया। इसलिए अधिक समय नहीं लगा।" यों कहकर उसने महारानी को नगर के दक्षिणी दरवाजे के पास रथ से नीचे उतार दिया और वहा--"मां ! मेरा ग्राम यहाँ से कुछ आगे है; अत: मैं आगे जाऊंगा। तुम नगर में चली जाओ।" इतना कहकर शक्र आगे बढ़ गया, अन्तर्धान हो गया, अपने लोक में चला गया। महारानी नगर में प्रविष्ट हुई। एक शाला में जाकर बैठ गई। तभी का प्रसंग है, चम्पानगर में एक वेदपाठी ब्राह्मण निवास करता था। उसके पांच सौ अन्तेवासी थे। वह उन्हें साथ लिये नदी पर नहाने जा रहा था । दूर से ही उसकी नजर महारानी पर पड़ी, जो शाला में बैठी थी। महारानी की कुक्षि में परम प्रतापशाली, महापुण्यवान् सत्त्व था। उसके प्रभाव से ब्राह्मण के मन में महारानी के प्रति अपनी कनिष्ठ सहोदरा जैसा स्नेह उत्पन्न हो गया। उसने अपने अन्तेवासियों को वहीं रुकने को कहा। स्वयं अकेला ही वह शाला में गया। महारानी से पूछा-"बहिन ! तुम कहाँ की रहने वाली हो? कौन हो?" महारानी-'मैं मिथिला नरेश अरिट्ठजनक की महारानी हैं।" ब्राह्मण-"तुम्हारे यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ?" महारानी ---"पोळजनक ने मेरे पति का वध कर डाला है। मैं भयभीत होकर अपने उदरस्थ गर्भ के रक्षण हेतु भाग कर यहाँ आई हूँ।" ब्राह्मण-"बहिन ! यहाँ इस नगर में तुम्हारा क्या कोई सम्बन्धी या परिजन है ?" महारानी-"तात ! इस नगर में मेरा कोई सम्बन्धी या परिजन नहीं है।" राह्मण -"बहिन ! तम चिन्ता मत करो। मैं महाशाल नामक ब्राह्मण हैं, आचार्य हैं। दर-दूर तक मेरी प्रसिद्धि है। मैं तुम्हें अपनी सहोदरा बहिन मानंगा । लोग गों को यह प्रतीति कराने हैन कि हम परस्पर भाई-बहन हैं, तम मेरे पैर पकडकर, भाई शब्द से सम्बोधित कर रोने लगो।" रानी ने आचार्य की सात्त्विक भावना समझ ली। वह उसके चरणों में गिर पड़ी, जोर-जोर से रोने लगी। ब्राह्मण भी रोने लगा। दोनों मिलकर खूब रोये। अन्तेवासी यह देखकर बड़े विस्मित हुए। वे दौड़कर आचार्य के पास आये और पूछने लगे- “आचार्य ! यह क्या बात है? इस महिला से आपका क्या सम्बन्ध है ?" आचार्य ने कहा-"यह मेरी कनिष्ठ भगिनी है। बहुत समय हुआ, यह मुझसे अलग हो गई। बहुत दिनों बाद हम मिले हैं।" _अन्तेवासियों ने यह देखकर कहा- 'आचार्य ! आप चिन्तित न हों, हम इनकी सेवा करेंगे।" महाशाल आचार्य ने महारानी को एक पर्देदार रथ में बिठाया और अपने अन्तेवासियों से कहा- "तुम इसे मेरे घर ले जाओ, मेरी पत्नी को बतलाओ, यह मेरी बहिन है, इसके Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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