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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ जय-पराजय के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यदि मैं युद्ध में निहत हो जाऊं तो तुम गर्म का परिरक्षण करना। पटरानी ने राजा का कथन शिरोधार्य किया। राजा यद्धार्थ निकल पड़ा। युद्ध में उसने पोळजनक के योद्धाओं के हाथ वीरगति प्राप्त की। समग्र मिथिला में कुहराम मच गया । महारानी को जब यह पता लगा कि राजा दिवंगत हो गया है तो उसने स्वर्ण, रत्न आदि बहुमूल्य वस्तुएं लीं। उन्हें एक टोकरी में रखा। उनके ऊपर फटे-पुराने कपड़े चीथड़े डाल दिए । उन पर चावल बिखेर दिए। गन्दे, मैले कपड़े पहने । अपने को कुरूप बनाया। टोकरी को मस्तक पर रखा । वह दिन दहाड़े महल से निकल पड़ी। वैसी अवस्था में उसे कोई पहचान न सका। ब्राह्मण द्वारा परिरक्षण नगर के उत्तरी दरवाजे से वह बाहर गई। पहले कभी कहीं एकाकी जाने का अवसर नहीं आया था, अत: उसे रास्ते की कोई जानकारी नहीं थी। वह दिङ्मूढ़ हो गई । उसने काळ चम्पानगर के विषय में सुन रखा था। वह बैठ गई और उधर से निकलने वालों से पूछने लगी- "मुझे काळ चम्पानगर जाना है, क्या कोई उधर जाने वाला है ? मैं साथ चाहती हूं।" __ महारानी की कुक्षि में कोई सामान्य प्राणी नहीं था। प्रज्ञा आदि पारमिताओं का पूरयिता बोधिसत्त्व उसकी कोख में था। पुण्य-प्रताप से शक का भवन प्रकम्पित हो उठा । शक ने इस पर ध्यान किया तो उसको ऐसा होने का कारण विदित हो गया। यह सोचकर कि महारानी का उदरस्थ प्राणा परम पुण्यात्मा है, मुझे वहाँ जाना चाहिए, महारानी की सहायता करनी चाहिए, शक ने एक वृद्ध पुरुष का रूप बनाया। पर्देदार गाड़ी तैयार की। उसमें बिछौना लगवाया। गाड़ी को हांकता हुआ वह वहाँ आया, जहाँ महारानी बैठी थी। आकर वह महारानी से बोला- मैं काळ चम्पानगर जा रहा हूँ। क्या तुम्हें वहाँ जाना है ?" महारानी-तात ! मैं वहीं जाना चाहती हूँ।" शक्र.---"मां! तब तुम मेरी गाड़ी में बैठ जाओ।" महारानी-"तात ! मैं गर्भवती हूँ। गाड़ी पर चढ़ना मेरे लिए शक्य नहीं है। मेरी इस टोकरी को तुम अपनी गाड़ी में रखो। मैं धीरे-धीरे पैदल चलती रहूंगी।" शक्र—"मां ! भय मत करो। तुम गाड़ी में बैठ जाओ। मैं कोई सामान्य चालक नहीं हूँ। तुम्हें आराम से ले चलूंगा।" महारानी ने टोकरी गाड़ी में रखी, स्वयं चढ़ने का उपक्रम किया। तब शक्रने अपनी दिव्य शक्ति से पृथ्वी को अधर उठाया, रथ के पिछले भाग से लगा दिया। महारानी रथ पर आरूढ हो गई । बिछौने पर लेट गई। उसने अनुभव किया, निश्चिय ही यह कोई दिव्य प्राणी है । ज्योंही बिछौने पर लेटी, उसे नींद आ गई। तीस योजन की दूरी पार करने पर एक नदी आई । शक्र ने नदी-तट पर रथ को रोका, महारानी को जगाया और उससे कहा-'मां ! रथ से उतरो, नदी में नहा लो । तकिये पर जो वस्त्र पड़ा है, उसे पहन लो।" महारानी रथ से नीचे उतरी । स्नान किया। वापस रथ पर बैठी। शक्र ने बताया, रथ में खाद्य पदार्थों की गठरी है, उसमें से लेकर भोजन कर लो। महारानी ने वैसा किया । वह फिर बिछौने पर लेट गई। उसे नींद आ गई। सायंकाल हुआ, Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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