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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
कथानुयोग - नमि राजर्षि : महाजनक जातक ५८७
देवेन्द्र —“क्षत्रियवर ! अनुकूल्यार्थ प्रासादों का निर्माण कराइए, उत्तमोत्तम घर बँधाइए, क्रीडा-स्थल बनवाइए । फिर निष्क्रमण कीजिए ।"
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राजर्षि -- " जिसका मन संशयाकुल होता है, वह मार्ग में घर बनाता है । वास्तव में प्रज्ञाशील वह है, जो वहाँ पहुँच जाए, जहाँ उसका शाश्वत घर है - सिद्ध-स्थान है ।' देवेन्द्र—“चोर, डाकू, गिरहकट, तस्कर —— इन्हें वशगत कर नियंत्रण कर, नगर का क्षेम - कल्याण, सुख साधकर निष्क्रमण करें ।'
राजर्षि—“कौन सापराध है, कौन निरपराध है, सही-सही जाना जा सके – ऐसा अज्ञानवश संभव नहीं है । दण्ड-प्रयोग में गलती होना आशंकित है । फलत: दुष्कर्म नहीं करने वाले - अपराध - रहित दण्डित हो जाते हैं तथा दुष्कर्म करने वाले - अपराधी छूट जाते हैं ।" देवेन्द्र –“जो पार्थिव - नृपतिगण आपके प्रति अभिनत नहीं हैं— नहीं झुके हैं, उनको अपने वश में कर - झुका कर आप अभिनिष्क्रमण करें ।"
राजर्षि - "एक पुरुष हैं, जो दुर्जय -- जिसे जीत पाना बहुत दुष्कर हो, ऐसे संग्राम में-- दारुण युद्ध में दस लाख योद्धाओं को जीत लेता है, और एक पुरुष है, जो केवल अपनी आत्मा को ही जीतता है; इन दोनों में आत्म-विजेता ही महान् विजयी है। आत्मा से ही, जूझना चाहिए, बाह्य युद्ध से कुछ बनने का नहीं । आत्म-विजय कर मनुष्य सच्चा सुख प्राप्त करता है ।"
एक आत्मा के जीत लिये जाने पर पाँचों इन्द्रिय, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा आभ्यन्तर दुष्परिमाण सब विजित हो जाते हैं ।"
देवेन्द्र "क्षत्रियवर ! विपुल - विशाल, बड़े-बड़े यज्ञ आयोजित कर, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराकर, दान कर, भोग कर, यजन कर आप अभिनिष्क्रान्त हों ।"
राजर्षि - एक वह मनुष्य है, जो हर महीने दस-दस लाख गायों का दान करता है, एक वह है, जो संयम की आराधना करता है, कुछ भी नहीं देता -- दान नहीं करता; इन दोनों में संयमाराधक मुनि ही श्रेष्ठ है ।"
देवेन्द्र - "मनुजाधिप - मनुष्यों के अधिनायक ! आप घोर - दुर्निर्वाह्य गृहस्थआश्रम का त्याग कर अन्य आश्रम - संन्यास -- आश्रम की अभीप्सा कर रहे हैं। अधिक उचित यह है - आप गृहस्थ में रहते हुए ही धर्म की उपासना, आराधना करें।"
राजर्षि - "जो बाल - अज्ञानी महीने - महीने की तपस्या करे, कृश के अग्रभाग - जितने से परिमाण के आहार द्वारा पारणा करे, उसकी वैसी कठोर तपःसाधना सुआख्यात — सर्वज्ञभाषित धर्म की सोलहवीं कला - सोलहवें अंश जितनी भी नहीं होती ।"
देवेन्द्र—''क्षत्रियवर ! स्वर्ण, रजत, मणि, मौक्तिक, (कांस्य पात्र आदि), वस्त्र, वाहन, कोश - खजाना – इनका अभिवर्धन कर, फिर निष्क्रमण करें।"
राजर्षि - "यदि कैलाश पर्वत - जितने ऊँचे सोने-चांदी के पर्वत भी हो जाएं, तो भी लोभासक्त पुरुष के लिए वे कुछ नहीं हैं । क्योंकि इच्छा आकाश के सामान अंतरहित है ।" "स्वर्ण, उत्तम चावल आदि धान्य तथा पशुधन से परिपूर्ण पृथ्वी भी यदि किसी एक पुरुष को दे दी जाए, तो भी उसके लिए पर्याप्त नहीं होती, उसे उससे परितोष नहीं होता । इसलिए प्राज्ञ पुरुष को चाहिए, वह तप की, संयम धर्म की आराधना करे ।"
देवेन्द्र– “राजर्षे ! बड़ा आश्चर्य है, आप अभ्युदित - प्राप्त सुख का परित्याग कर रहे हैं और काल्पनिक सुख की इच्छा कर रहे हैं। इससे आप संकल्प में विभ्रान्त रहेंगे, कदर्थित होंगे —— पश्चात्ताप करेंगे ।"
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