________________
५८६
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
अंतिम पहर में आये सपने पर ऊहापोह करने लगा। उसको जाति- स्मरण - ज्ञान उत्पन्न हो
गया। वह प्रत्येक बुद्ध हुआ ।
महाराज नमि अनेकानेक नगर-संकुल जनपद राजधानी, मिथिला, सेना, रानियाँ, दास, दासी, धन, वैभव- सबका परित्याग कर संयम पथ के पथिक हो गये ।
प्रत्येक बुद्ध नमि : ब्राह्मण के रूप में शक्रेन्द्र : एक तात्त्विक प्रसंग
उन्हें अभिनिष्क्रान्त होते देख मिथिला नगरी में मोह-ममता वश सर्वत्र शोकाकुल कोलाहल छा गया ।
उस समय शक्रेन्द्र ब्राह्मण के रूप में राजर्षि नमि के समक्ष उपस्थित हुआ। वह बोला- “राजन् ! मिथिला के प्रासाद और गृह आज दारुण कोलाहल से परिव्याप्त हैं । क्या आप नहीं सुनते ? "
-
राजर्षि - "मिथिला में एक चैत्य वृक्ष था । वह शीतल छाया युक्त था, मनोरम था, पत्र-पुष्प-फल मय था, बहुत से प्राणियों के लिए बहुगुणमय था — हितकर था, प्रियवर था । अकस्मात् हवा का एक झोंका आया, वह वृक्ष उखड़ गया । वे पक्षी आदि प्राणी, जो उस पर आश्रित थे, शरणहीन हो गये, दुःखित हो गये । अतएव वे क्रन्दन कर रहे हैं, चीख रहे हैं ।' यह सुनकर देवेन्द्र राजर्षि से बोला – “भगवन् ! वायु से परिप्रेरित भीषण रूप से जलती हुई अग्नि आपके महल को जला रही है । आप अपने अन्तःपुर की ओर क्यों नहीं देखते ?"
"
राजर्षि - "मैं अध्यात्म-सुख में जी रहा हूँ, अध्यात्म-सुख में बस रहा कुछ नहीं है, मिथिला जल रही तो मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। जिस कलत्र - स्त्रियाँ सभी प्रकार के सांसारिक व्यवहार-व्यवसाय त्याग दिये हैं, कुछ प्रिय है और न कुछ अप्रिय ।
"सब ओर से विप्र मुक्त - छूटे हुए गृहत्यागी, एकत्वभाव के द्रष्टा - आत्मैक्यभाव में स्थित भिक्षु निश्चय ही कल्याणयुक्त - आनन्दयुक्त होता है ।"
हूँ, मेरा कहीं भिक्षु ने पुत्र, उसके लिए न
देवेन्द्र -- "क्षत्रियवर ! आप अपनी राजधानी मिथिला की सुरक्षा के लिए प्राकार— प्राचीर – परकोटा, परकोट के मध्य गोपुर - नगर द्वार बनवा दें, मोर्चा बन्दी करवा दें, तोपें लगवा दें । यों राजधानी को अति सुरक्षित बनाकर प्रव्रज्या ग्रहण करें ।”
-
राजर्षि - "मैंने एक नगर का निर्माण किया है । वह नगर श्रद्धात्मक है । मैंने उसके क्षमा का उत्तम परकोटा बनाया है । परकोटे के द्वारों में तप एवं संवर की अर्गलाएँ - आगलें लगाई हैं । त्रिगुप्ति - मानसिक, वाचिक, कायिक संगोपन — त्रिधा असत् कर्म-परिवर्जनयही राजधानी की सुरक्षा के लिए मोर्चाबन्दी तथा तोपें आदि हैं । इन्हीं के कारण मेरा वह नगर सर्वथा सुरक्षित है, दुर्जेय - उसे किसी द्वारा जीता जाना सरल नहीं है । "आत्म-पराक्रम-आत्म-बल मेरा धनुष है । ईर्या समिति विशुद्ध, निर्दोष गति उस धनुष की प्रत्यंचा है। धर्म रूप पताका सत्य द्वारा उसमें प्रतिबद्ध है । उस धनुष पर तप का बाण चढ़ाकर मैं आत्म-नगर पर आक्रमण करने वाले कर्म-रूप शत्रुओं के कवच का भेदन करता हूँ, कर्म- जाल का अनुच्छेद करता हूँ ।
"बाहरी संग्राम से निवृत्त, आत्म-संग्राम में संप्रवृत्त मुनि भव- भ्रमण - जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है ।"
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org