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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
पुण्य - प्रभाव
राजा पद्मरथ शिशु को लेकर अपनी राजधानी में लौटा । अन्त:पुर में आनन्द छा गया। शिशु का राजमहल में लालन-पालन होने लगा । वह क्रमशः बड़ा होन लगा । उसका ऐसा पुण्य प्रभाव था कि उसके आने के बाद राजा के सब प्रकार की वृद्धि होने लगी । राजा के जो शत्रु थे, वे स्वयं झुक गये । इस कारण उस बालक का नाम वह तरुण हुआ। राजा पद्मरथ ने उसका १००८ दिया ।
नमि रखा गया । सौन्दर्यमयी कन्याओं के साथ विवाह कर
कथानुयोग --- नमि राजर्षि : महाजनक जातक
पद्मरथ द्वारा नमि को राज्य
राजा पद्मरथ ने अपना राज्य, वैभव, संपत्ति- - सब नमि को सौंप दिया, स्वयं प्रव्रजित हो गया । महाराज नमि सुख-सम्पन्नता के बीच राज्य करने लगे ।
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भीषण दाह ज्वर
एक बार महाराज नमि भीषण दाह ज्वर से पीड़ित हुए । दाह ज्वर की घोर वेदना सहते छः महीने व्यतीत हो गये, ज्वर नहीं मिटा । चिकित्सकों ने बतलाया कि रोग असाध्य है । सब चिन्तित थे, आकुल थे, सेवा-शुश्रूषा एवं उपचार में निरत थे । राजा के शरीर पर लेप हेतु रानियाँ स्वयं चन्दन घिस रही थीं। रानियाँ हाथों में कंकण पहने थीं । चन्दन घिसते समय हाथों के हिलने से कंकण परस्पर टकराते थे, आवाज करते थे । वेदना -विह्वल राजा को वह आवाज बड़ी अप्रिय तथा कष्टकर प्रतीत होती थी ।
कंकण का प्रसंग : अन्तर्मुखीन चिन्तनधारा
रानियों ने अपने हाथों के कंकण उतार दिये । सौभाग्य के प्रतीक के रूप में वे केवल एक-एक कंकण पहने रहीं। कंकण उतार देने से आवाज निकलना बंद हो गया। राजा को जब आवाज सुनाई नहीं दी, तो थोड़ी देर बाद उन्होंने अपने मंत्री से पूछा - "मंत्रिवर ! कंकणों की आवाज सुनाई नहीं आती, क्या बात है ।" मंत्री ने कहा - "राजन् ! कंकणों के परस्पर टकराने से आवाज होती है । वह अप्रिय लगती है, उससे आपको कष्ट होता है, यह सोचकर रानियों ने अपने हाथों से कंकण उतार दिए हैं । सौभाग्य चिह्न के रूप में केवल एक-एक कंकण हाथों में रखा है । अकेले में कोई टकराव या संघर्षण नहीं होता । संघर्षण के बिना आवाज कैसे आए ।"
द्वन्द्व में दुःख ही दुःख
राजानमि कि चिन्तन-धारा अन्तर्मुखीन हुई । वे सोचने लगे - सुख एकाकीपन में है । द्वन्द्व में सुख नहीं है, वहाँ दुःख ही दुःख है। चिन्तन कि अन्तर्मुखीनता उत्तरोत्तर आगे बढ़ती गई। राजा ने मन-ही-मन संकल्प किया कि यदि यह मेरा रोग मिट जायेगा, मैं स्वस्थ हो जाऊंगा तो प्रव्रज्या ग्रहण कर लूंगा ।
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प्रत्येक बुद्धत्व लाभ
वह कार्तिक पूर्णिमा का दिन था। इसी चिन्तन-धारा में राजा निमग्न था, उसे नींद आ गई। रात के अंतिम पहर में उसने एक शुभ सूचक स्वप्न देखा । नन्दि घोष के निनाद से उसकी नींद टूटी। वह जगा । दाह ज्वर का भीषण रोग स्वतः मिट गया। राजा
रात के
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