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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ इसी प्रकार का प्रसंग महाजनक जातक में दृष्टिगोचर होता है। महारानी सीवळी सेनाध्यक्ष को कहकर जीर्ण गृहों, पुराने मकानों तथा घास-फूस आदि में आग लगवा देती है। वह दृश्य महाराज महाजनक के समक्ष आता है। महारानी उनमें मोहासक्ति उत्पन्न करने हेतु कहती है-"महाराज ! देखिए-यह क्या हो रहा है, मिथिला जल रही है, सब कुछ नष्ट हुआ जा रहा है।" महाजनक इस पर वैसा ही कहते हैं, जैसा उत्तराध्ययन में नमि राजर्षि कहते हैं। मात्र भावात्मक ही नहीं, शब्दात्मक रूप में भी दोनों के कथन बड़ा साम्य लिए हैं।' ___ जैन कथानक में नमि राजर्षि के वैराग्योद्भव में रानियों की कंकण-ध्वनि का प्रसंग आता है। कंकण-ध्वनि का प्रसंग महाजनक जातक में भी है। जब राजा वैराग्य की दिशा में आगे बढ़ता है, तब एक कमारिका,जो अपने एक हाथ में दो कंकण तथा अपने दूसरे हाथ में एक कंकण पहने थी, जो अपने हाथों से बाल थपथपा रही थी, मिलती है। जिस हाथ में दो कंकण थे, शब्द होता था, जिसमें एक कंकण था, शब्द नहीं होता। यह देख राजा रानी को समझाने हेतु कुमारिका से प्रश्न करता है, कुमारिका वैसे ही बताती है, जैसा जैन कथानक में वर्णित है-दो के टकराव से शब्द होता है, एक से नहीं। यहाँ उपस्थापित कथानकों में उपर्युक्त प्रसंग विशद रूप में वर्णित है। नमि राजर्षि मदनरेखा अवन्ती नामक देश था । वहाँ सुदर्शन नामक नगर था। वह अवन्ती देश की राजधानी था। वहाँ के राजा का नाम मणिरथ था। युगबाहु नामक उसका भाई था। युगबाहु की पत्नी का नाम मदनरेखा था। राजा मणिरथ ने अपन भाई युगबाहु की हत्या कर दी। इस दुःखद घटना से मदनरेखा भयाक्रान्त हो गई। वह सुदर्शन नगर से अकेली ही भाग निकली। भागती-भागती वह एक जंगल में चली गई। उस समय उसके गर्भ था। जंगल में उसने पुत्र-प्रसव किया। उसने नवजात शिशु को रत्न-कम्बल में लपेटा, वहीं रखा । स्वयं शौच-कर्म हेतु-दैहिक सफाई, स्वच्छता आदि के लिए एक सरोवर पर गई। सरोवर में एक जलहस्ती था। उसने मदनरेखा को सूंड से पकड़कर आकाश में उछाल दिया। रानकम्बल में लिपटा शिशु तभी विदेह नामक राष्ट्र था। मिथिला उसकी राजधानी थी। वहाँ के राजा का नाम पद्नरथ था। वह आखेट हेतु वन में आया। रत्नकम्बल में लिपटे शिशु की ओर उसकी दृष्टि गई। उसने शिशु को उठाया। उसके कोई पुत्र नहीं था। इस प्रकार सहज ही पुत्र प्राप्त हो जाने से उसे बड़ा हर्ष हुआ। १. (क) सुहं वसामो जीवामो, जेसिं णो अस्थि किंचण । मिहिलाए उज्झमाणीए, ण मे उज्झइ किंचण ।। -उत्तराध्ययन सूत्रह १. (ख) सुसुखं वत जीवाम, येसं नो अस्थि किंञ्चनं । मिथिलाय डह्यमानाय, न मे किञ्चि अडह्यथ ।। -महाजनक जातक १२५ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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