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तत्त्व: आचार:
-नमि राजषि : महाजनक जातक
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१४. नमि राजर्षि : महाजनक जातक
धार्मिक जगत् में परमोच्च साधनाशील पुरुषों में मिथिला-नरेश जनक की बहुत चर्चा है। जैन-साहित्य में जनक राजर्षि नमि के रूप में प्रसिद्ध हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र के नवम अध्ययन में राजर्षि नमि का प्रसंग है। उत्तराध्ययन सूत्र की सुख बोध टीका में उसका विस्तार है। नमि जैन-परम्परा के अन्तर्गत प्रत्येक बुद्धों में समाविष्ट हैं। जिनमें किसी घटना-विशेष के प्रसंग से स्वयं अन्तर्ज्ञान उद्बुद्ध होता है, जो संसार की असारता जान लेते हैं, विरक्त हो जाते हैं, साधना में उतर आते हैं, वे प्रत्येक बुद्ध कहे जाते हैं। बौद्ध-परंपरा में भी लगभग ऐसी ही व्याख्या है।
एक संयोग बना, राजर्षि नमि भीषण दाह-ज्वर से पीड़ित हुए। रानियाँ लेप हेतु चन्दन घिसने लगीं। रानियों द्वारा हाथों में धारण किये हुए कंकणों के परस्पर टकराने से जो आवाज हुई, तीव्र वेदना के कारण राजर्षि को अत्यन्त अप्रिय और असह्य लगी। तब रानियों ने अपने सौभाग्य चिह्न के रूप में केवल एक-एक कंकण हाथों में रखा, और उतार दिए, आवाज नहीं हुई। राजषि को जब यह ज्ञात हुआ, वे चिन्तन की गहराई में डूब गये। उन्होंने अनुभव किया, द्वैध में दुःख है, एकाकीपन में दुःख नहीं है। उन्हें अन्तनि हुआ, वे प्रत्येक बुद्ध हो गये । सर्वथा विरक्त हो गये। बहुत अनुनय-विनय के बावजूद वे रुके नहीं, साधना-पथ पर बढ़ चले।।
इसी प्रकार का कथानक महाजनक जातक में है। वैराग्योत्प्रेरक प्रसंग भिन्न है, किन्तु भाव-बोध की दृष्टि से दोनों में एक कोटिकता है ।
मिथिला के राजा महाजनक एक दिन अपने उद्यान का निरीक्षण करन लगे। आम के दो हरे-भरे वृक्षों को देखा। एक आमों से लदा था, दूसरा फलरहित था। राजोद्यान का पहला फल राजा खाए, अतः उसके फल अछूते थे। राजा ने एक फल तोड़ा, खाया, बड़ा मधुर था। राजा आगे बढ़ा। पीछे सेनापति, सामन्त, अधिकारी, कुलपुरुष, सैनिक, सेवक एक-एक फल सभी तोड़ते गये, खाते गये। वह वृक्ष फलरहित हो गया। राजा वापास लौटा । वृक्ष की वह स्थिति देखी, सारी बात सुनी। राजा चिन्तन-निरत हो गया। उसे जगत् के यथार्थ स्वरूप का बोध हुआ। वह प्रत्येक बुद्ध हो गया। उसे राज्य से, वैभव से परिवार से वैराग्य हो गया। राजा ने अभिनिष्क्रमण किया। महारानी सीवळी ने राजा का पीछा किया, वापस लौटाने का बड़ा प्रयास किया, राजा वापस नहीं लौटा।
दोनों कथानकों का एक बड़ा प्रेरक प्रसंग है। जैन-कथानक में शक्रेन्द्र ब्राह्मण के वेष में राजा को समझाने आता है। लम्बो धामिक चर्चा चलती है। शकेन्द्र जो भी बात रखता है, राजर्षि उसका समाधान देते जाते हैं। इस बीच शकेन्द्र देवमाया से मिथिला को जलता दिखाता है और राजर्षि में मोह जगाने हेतु कहता है-'आपकी मिथिला जल रही है, आपका अन्तःपुर जल रहा है, उस ओर देखिए तो सही।"
राजर्षि ने इस पर शक्रेन्द्र को जो उत्तर दिया, वह उनके साधनोद्दीप्त, उत्कट वैराग्यमय जीवन का द्योतक है। उन्होंने कहा- 'मैं अपने आपमें लीन हूँ, अत्यन्त सुखी हूँ। मेरा जगत् में कुछ नहीं है। मिथिला जल रही है, मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है।"
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