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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ राजि - "काम - भोग शल्यरूप है, विरूप हैं, विष-दिग्ध सर्प जैसे । जो कामभोगों की अभिलाषा करते हैं, वे उन्हें न पाते हुए भी उनका सेवन नहीं करते हुए भी परिणामों की कलुषता के कारण दुर्गति में जाते हैं । "क्रोध से जीव का अधोगमन होता है— वह नरक में जाता है । मान-अहंकार से वह निम्न गति प्राप्त करता है । माया—छल-कपट या प्रवंचना से शुभ गति का प्रतिघात - व्याघात या नाश होता है । लोभ लोक और परलोक में भयजनक है, शोकप्रद है ।" ५८८ देवराज इन्द्र ब्राह्मण के रूप का परित्याग कर, इन्द्र रूप का विकुर्वणा कर — अपने यथार्थ रूप में आकर मधुर शब्दों में राजर्षि नमि की इस प्रकार स्तावना करने लगा - "राजर्षे ! बड़ा आश्चर्य है, आपने मान को पराजित कर दिया है, आपने माया को निष्क्रिय – प्रभाशून्य बना दिया है तथा लोभ को वशगत कर लिया है, नियंत्रित कर लिया है । आपकी ऋजुता - सरलता, मृदुता - कोमलता, शान्ति - क्षमाशीलता, मुक्ति - निःसंगता अत्यन्त श्रेष्ठ है, आश्चर्यकर है। "भगवन् ! आप यहाँ भी श्रेष्ठ हैं, परलोक में भी आपको श्रेष्ठता प्राप्त होगी। आप कर्म-रज का अपगम कर लोक में सर्वोत्तम स्थान, सिद्धि - सिद्धत्व - मोक्ष प्राप्त करेंगे।” इन्द्र इस प्रकार उत्तम श्रद्धापूर्वक राजर्षि की स्तवना करता हुआ प्रदक्षिणा करता हुआ उन्हें बार-बार नमस्कार करने लगा । ललित - सुन्दर, चपल - हिलते हुए कुण्डलयुक्त, मुकुटयुक्त इन्द्र राजर्षि नमि के चक्र अंकुश आदि शुभ चिह्नोपेत चरणों में वन्दन कर आकाश मार्ग द्वारा अपने लोक में चला गया । घर का - सांसरिक जीवन का परित्याग कर प्रव्रजित विदेहराज नमि की साक्षात् इन्द्र ने परीक्षा की, किन्तु, वे संयम में अविचल रहे, आत्म-भाव में अभिनत रहे । सम्बुद्ध – सम्यक् बोधयुक्त पंडित तत्त्वज्ञ, प्रविचक्षण- सुयोग्य, विवेकशील पुरुष राजर्षि नमि की ज्यों भोगों से विनिवृत्त होकर आत्म-साधना में निश्चल तथा सुस्थिर रहते हैं । " महाजनक जातक तथागत के महा अभिनिष्क्रमण की चर्चा एक दिन का प्रसंग है, भिक्षु धर्मसभा में बैठे थे । तथागत के महा अभिनिष्क्रमण के सम्बन्ध में चर्चा कर रहे थे । उसकी प्रशस्तता का आख्यान कर रहे थे । उन्हें वैसा करते देख भगवान् ने उन्हें पूछा - "भिक्षुओ ! क्या वार्तालाप कर रहे हो ?" "भन्ते ! आपके महा अभिनिष्क्रमण की प्रशंसा कर रहे हैं ।" भिक्षु बोले भगवान् ने कहा - " 'भिक्षुओ ! तथागत ने न केवल अभी वरन् इससे पूर्व भी महा अभिनिष्क्रमण किया है ।' भिक्षुओं द्वारा जिज्ञासित किये जाने पर तथागत ने पूर्व जन्म के वृत्तान्त का आख्यान किया । १. उत्तराध्ययन सूत्र, नवम अध्ययन, सुखबोधा टीका । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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