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५८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३ हुआ कि उनके अमात्य भी सभी व्यवहारों- अभियोगों या मुकदमों का धर्म पूर्वक निर्णय करते। यों अनवरत धर्म पूर्वक मुकदमों के निर्णय होते रहने के कारण ऐसे लोग ही नहीं रहे, जो असत्य अभियोग प्रस्तुत करते । इसका परिणाम यह हुआ कि राजभवन के प्रांगण में अभियोगकारों का कोई कोलाहल ही नहीं होता। अमात्य दिन भर न्यायालय में स्थित रहते । वे देखते, कोई मुकदमे के लिए नहीं आता, उठ कर चले जाते । परिणाम यह हुआ, न्या. यलय खाली कर देने जैसे हो गये।
अन्वेषण
बोधिसत्त्व चिन्तन करने लगे-मैं धर्म के अनुरूप राज्य कर रहा है, इसलिए मेरे समक्ष, राज्याधिकारियों के समक्ष मुकदमे नहीं आते, कोई कोलाहल नहीं होता, न्यायालयों की मानो आवश्यकता ही नहीं रह गई हो। यह एक कार्य हुआ। अब मुझे एक दूसरा कार्य और करना है-मुझे अपने दुर्गुणो का अन्वेषण करना चाहिए। जब मुझे यह ज्ञात हो जायेगा कि मुझ में अमुक-अमुक दुर्गण हैं तो मैं उनका परित्याग कर दुर्गुण मुक्त, गुणयुक्त हो कर रहूँगा।
बोधिसत्व यह खोजने लगे कि कोई उनके दुर्गुण बतलाए । राजमहल में उन्हें ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला, जो उनके अवगुण बतला सके । जो भी मिले, प्रशंसक ही मिले। बोधिसत्व राजा ने सोचा-राजमहल के लोग, जो मेरे अधीनस्थ हैं.संभव है, मेरे भय से भी मेरे अवगुण न बतलायें, मेरी प्रशंसा ही प्रशंसा करें; इसलिए उन्होंने महल के बाहर ऐसे व्यक्तियों की खोज की जो उनके अवगुण बतला सकें, किन्तु, उन्हें महल के बाहर भी ऐसा व्यकिन नहीं मिला, जो उनमें दोष बतलाए । तब उन्होंने नगर के भीतर, नगर के बाहर, चारों दरवाजों के समीप अवस्थित ग्रामों में ऐसे मनुष्यों को खोजने का प्रयास किया, पर, उन स्थानों में भी कोई वैसा पुरुष नहीं मिल सका, जो उनके दुर्गण बतला सके । सर्वत्र उन्हें अपनी प्रशंसा ही प्रशंसा सुनने को मिली।
यह देखकर बोधिसत्व ने निर्णय किया कि वे जनपद में इस सम्बन्ध में खोज करेंगे। उन्होंने राज्य अमात्यों को सम्हला दिया। वे वेष बदलकर केवल सारथि को साथ लिए रथ पर आरूढ़ हुए, नगर से बाहर निकले । अपना दोष बताने वाले की खोज करते हुए वे राज्य की सीमा तक चले गये। वहाँ तक उन्हें उनका दोष बताने वाला कोई व्यक्ति नहीं मिला। जो भी मिले प्रशंसक ही मिले। तब वे राज्य की सीमा से बाहर महामार्ग से होते हुए नगर की ओर लौटे।
कोशल-नरेश मल्लिक का सामना
उसो समय की घटना है, मल्लिक नामक कोशल देश का राजा भी धर्मपूर्वक राज्य करता हुआ अपना दोष बताने वाले की खोज में निकला था। उसे भी जब महल के भीतर रहने वालों में कोई दोष बताने वाला नहीं मिला, केवल प्रशंसक ही प्रशंसक मिले तो वह दोष बनाने वाले की खोज में जनपद में निकल पड़ा। संयोग ऐसा बना कि वह घूमता-घूमता वहीं आ पहुंचा, जहाँ वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्तकुमार वैसे ही लक्ष्य से घूम रहे थे। एक ढालू संकरा मार्ग था। दोनों के रथ आमने सामने आ गये। स्थान इतना संकरा था कि कोई एक रथ दूसरे को पार होने के लिए जगह देने की स्थिति में नहीं था।
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