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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ दोनों धन के गर्व से उन्मत्त थे। उनमें से कोई अपना रथ पीछे हटाने को राजी नहीं हुआ। दोनों में तकरार बढ़ता गया। दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े थे। एक शर्त : एक संकल्प उनमें से एक ने दूसरे से कहा-"जिस धन के बल पर तुम इतराते हो, वह तो तुम्हारे पिता का कमाया हुआ है । तुमने क्या कमाया ? खुद कमा कर लाओ और शान दिखलाओ तो जानें।" दूसरे ने कहा--"तुम क्या बढ़-बढ़ कर बात बनाते हो? जिस धन के अभिमान में तुम फूले हो, वह क्या तुम्हारे पिता द्वारा अजित नहीं है ? क्या उसे तुमने अर्जित किया है ? तुमने मुझ पर आक्षेप किया, वह ठीक वैसे ही तुम पर भी लागू है।" दोनों श्रेष्ठिपुत्रों के साथ एक ही स्थिति थी, स्वयं धन नहीं कमाया था। जिसके बल पर वे मौज-मजा कर रहे थे, दोनों का ही वह पैतृक धन था। दोनों के अहंकार को चोट पहुँची। दोनों ने परस्पर एक संकल्प किया, जो अपने परिवारिक सह्योग के बिना एकाकी केवल अपने बुद्धि-पराक्रम द्वारा बारह वर्ष की अवधि में विपुल धन कमाकर वापस लौटेगा, दूसरा, जो वैसा करने में असफल रहेगा, उसकी (सफल श्रेष्ठिपुत्र की) अपने सुहृद्वन्द सहित दासता स्वीकार करेगा। दोनों ने इस सम्बन्ध में लिखा-पढ़ी की। लिखा-पढ़ी का कागज उन्होंने नगर के एक सुप्रतिष्ठित, विश्वस्त सेठ को सौंप दिया। उद्यमी : आलसी पहले श्रेष्ठिपुत्र ने इस बात को बड़ी गंभीरता से लिया । वह निरालस था, उद्यमी था। अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वहीं से चल पड़ा। वापस लौटकर अपने घर तक भी नहीं गया। उसने विदेश यात्रा की। बुद्धिमान् था, सूझबूझ का धनी था, उत्साही और कर्मठ था। सामुद्रिक व्यापार द्वारा उसने बहुत धन कमाया। अपने सुहृवन्द को भेजा। जब दोनों श्रेष्ठिपुत्रों के बीच लिखा-पढ़ी हुई थी, उस समय दूसरे श्रेष्ठिपुत्र के सहृदों ने उससे आग्रह किया कि तुम भी व्यापारार्थ यात्रा करो। अपनी प्रतिभा और परिश्रम द्वारा पहले श्रेष्ठिपूत्र की चूनौती का जवाब दो, किन्तु, वह विषय-लूब्ध था, साहसहीन था, कष्टों से घबराता था, आलसी था, व्यापारिक यात्रा हेतु जाने को तैयार नहीं था। वह मन ही मन विचार करता रहा, पहला प्रेष्ठिपुत्र बहुत समय बाहर रहकर जितना द्रव्य अजित करेगा, मैं उतना द्रव्य बहुत ही कम समय में उपाजित कर लूंगा, अभी क्यों कष्ट झेलू, जल्दी क्या है ? यों सोचते-सोचते उसने ग्यारह वर्ष बिता दिये। हताश : निराश बारहवाँ वर्ष चालू हुआ। पहला श्रेष्ठिपुत्र विपुल धन-वैभव के साथ अपने नगर वापस लौटा । दूसरे श्रेष्ठिपुत्र ने सुना, वह बड़ा उद्विग्न हुआ। मन में विचार करने लगाबहुत बुरा हुआ। मैं खतरों से डरता रहा, भोग-वासना में लिप्त रहा, मैंने बहुत समय यों ही व्यतीत कर दिया। अब तो केवल एक ही वर्ष का समय बचा है, जिसमें मैं क्या उपाजित कर सकूँगा । इस पराजय एवं पराभव से उद्वेलित रहने की अपेक्षा अपने प्राणों का अन्त कर देना कहीं अधिक अच्छा है ! Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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