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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग – इभ्यपुत्रों की प्रतिज्ञा : राजोवाद जातक ५७७ १३. इभ्य पुत्रों की प्रतिज्ञा : राजोवाद जातक
उच्चता या वरिष्ठता का आधार जन्म, वय, पद या वैभव नहीं है, गुण हैं, पुरुषार्थ है । इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय वाङ्मय में कथाओं के माध्यम से सुन्दर विवेचन हुआ है। जैन साहित्य एवं बौद्ध साहित्य में इस प्रकार के बड़े प्रेरक कथानक प्राप्त हैं ।
वासुदेव हिंडी में दो श्रेष्ठि- पुत्रों का कथानक है । दोनों पर धन का उन्माद छाया था। एक बार दोनों के रथ आमने-सामने आ गये । मार्ग संकरा था। किसी के हटे बिना, वापस हुए बिना दूसरे का रथ निकल पाना संभव नहीं था। दोनो में विवाद ठन गया, जिसके निर्णयार्थ वे एक गुणात्मक कसौटी पर सहमत हुए। वे परस्पर संकल्पबद्ध हुए, जो द्वादश वर्षीय अवधि में स्वयं अपने उद्यम औद पुरुषार्थ द्वारा विपुल सम्पत्ति अर्जित कर दिखायेगा, वह वरिष्ठ, उत्तम माना जायेगा ।
एक श्रेष्ठपुत्र अपने बुद्धि-बल, पुरुषार्थ और पराक्रम द्वारा निश्चित अवधि के भीतर वैसा कर दिखाता है । दूसरा, जो प्रमादी, भोग-लोलुप, सुविधावादी और आलसी था, पराभूत एवं हताश हो जाता है ।
बौद्ध परंपरा में राजोवाद जातक के अन्तर्गत वाराणसी- नरेश ब्रह्मदत्त और कोशलनरेश मल्लिक के रथों के मुकाबले का प्रसंग है। जाति, गोत्र, वय, वैभव, सेना, सम्पत्ति, कीर्ति, कुल परम्परा, राज्य विस्तार आदि में दोनों समान थे। कौन मार्ग से हटे, एक समस्या थी । अन्ततः शील की कसौटी पर निर्णय हुआ । वाराणसी- नरेश ब्रह्मदत्त शील सम्पन्न था। कोशल- नरेश मल्लिक ने अपना रथ मार्ग से हटवाया । वाराणसी - नरेश के उत्तम गुणों को उसने सहर्ष स्वीकार किया ।
बौद्ध कथानक का सन्दर्भ शास्ता की धर्म देशना से सीधा जुड़ा है, जहाँ वे प्रसंगोपॉत्त रूप में ब्रह्मकुमार तथा मल्लिक का कथानक उपस्थित कर शील को विशेषता का आख्यान करते हैं ।
यहाँ उपस्थापित उपर्युक्त दोनों कथानक परिशीलनीय एवं मननीय हैं ।
इभ्पुत्रों की प्रतिज्ञा
धन का नशा आगे पीछे का विवाद
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एक नगर था । वहाँ दो इभ्यपुत्र -- श्रेष्ठिपुत्र निवास करते थे
एक बार की घटना है, एक श्रेष्ठिपुत्र अपने रथ में आरूढ हुआ बगीचे से नगर के भीतर जा रहा था । दूसरा श्रेष्ठिपुत्र रथारूढ हुआ नगर से बाहर की ओर जा रहा था । दोनों के साथी, सुहृद् दोनों के साथ थे । नगर के दरवाजे पर दोनों की आमने-सामने भेंट हुई, दोनों को एक दूसरे की विपरीत दिशा में जाना था — एक को नगर के अन्दर की ओर तथा दूसरे को नगर से बाहर की ओर । मार्ग इतना चौड़ा नहीं था कि दोनों के रथ एक दूसरे के अगल-बगल निकल सकें ।
नगर के भीतर आने को उद्यत श्रेष्ठिपुत्र ने नगर के बाहर जाने वाले श्रेष्ठिपुत्र से कहा - " अपना रथ हटा लो, मैं भीतर जा रहा हूँ ।" उसने सुना, पर रथ नहीं हटाया । वह बोला - " तुम ही अपना रथ हटा लो न, मैं क्यों हटाऊँ ।"
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