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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
पास आया हूँ। जैसा आपके मन में आए, जो आप चाहें, वह वर मांगें ।""
इस पर शिविकुमार ने कहा- "देवराज ! मेरे पास प्रभूत- प्रचुर धन-सम्पति है, सेना है, अनल्प - विपुल, बहुत बड़ा खजाना है, किन्तु, मुझ अन्धे को मरण ही रुचता है— प्रिय लगता है । " २
देवराज शक्र ने राजा से पूछा - " शिविराज ! क्या आप मरण के अभिप्राय से मृत्यु की कामना करते हैं, अथवा चक्षु-हीन होने के कारण ऐसा करते हैं ?"
राजा बोला – “देवेन्द्र ! चक्षु-हीन होने के कारण मैं मृत्यु की कामना करता
हूँ ।"
नेत्रों की पुनरुपलब्धि
शक्र ने कहा - "महाराज ! दान का फल केवल परलोक में ही नहीं मिलता, केवल परलोक के हेतु ही दान नहीं दिया जाता, इस जन्म में भी उसका फल प्राप्त होता है । आपने एक नेत्र मांगने पर दो नेत्र दे दिए, निःसन्देह आपका दान आदर्श दान है ।
[ खण्ड : ३
"राजन् ! जितने सत्य हैं, जो सत्य आचीर्ण हैं, उन्हें भाषित करें— कहें। उनके कथन मात्र से आप चक्षुष्मान् हो जायेंगे — आपके नेत्र उग आयेंगे।”3
यह सुनकर शिविकुमार ने कहा - "देवेन्द्र ! यदि नेत्र देना चाहते हो, तो इसके लिए कोई अन्य उपाय मत करो। मेरे द्वारा दिए गए दान के परिणाम स्वरूप ही मुझे नेत्र प्राप्त हों, मेरी यह भावना है ।"
शक्र ने राजा से कहा- "महाराज ! मैं शक्र हूँ, देवताओं का राजा हूँ, पर, मैं दूसरों को नेत्र नहीं दे सकता। आपके दान के परिणामस्वरूप ही आप को नेत्र प्राप्त होंगे।"
कहा "
-
राजा बोला - "यदि ऐसा है तो मैं अपना दान सफल मानता हूँ । राजा ने आगे - " भिन्न-भिन्न गोत्रों के जाति और वंशों के जो भी याचक याचना लेकर मेरे पास आते हैं, वे सब मुझे अपने मन में बड़े प्रिय लगते हैं, यह एक सत्य है, जिसे मैं आख्यात करता हूँ । इस सत्य कथन के सुप्रभाव से मेरा एक नेत्र उत्पन्न हो जाए- पूर्ववत् ज्योतिर्मय हो जाए । ४
राजा ने ज्योंही उपर्युक्त शब्द कहे, उसका पहला नेत्र तत्पश्चात् राजा ने अपने दूसरे नेत्र के उत्पन्न होने का अभिप्रेत याचक नेत्र की मांग लिए मेरे पास आया, उसने नेत्र मांगा। मैंने अपने दोनों नेत्र दे दिए। -
पूर्ववत् स्वस्थ हो गया । लिए कहा – “जो ब्राह्मण
१. सक्को हस्मि देविन्दो, आगतोस्मि तवन्तिके ।
वरं वरस्सु राजीसि, यं किञ्च मानसिच्छसि ॥२०॥ २. पहूतं मे धनं सक्क, बलं कोसो चनप्पको ।
अन्धस्स मे सतो दानि, मरणं एव रुच्चति ॥ २१॥ ३. यानि सच्चानि दिपदिन्द, तानि भास्ससु खत्तिय ।
सच्चं ते मगमानस्स, पुन चक्खुं भविस्सति ॥ २२ ॥ ४. ये यं याचितुं आयन्ति, नानागोत्ता बनिब्बका ।
यो पि मं याचते तत्थ, सो पि मे मनसो पियो, एतेन सच्चवज्जेय, चक्खु मे उपपज्जथ ||२३||
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