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________________ तत्त्व : आचार: --राजामेघरथ: कबूतर व बाज: शिवि जा०५७५ वैसा करते हुए मेरे मन में असीम प्रीति-प्रसन्नता तथा अनल्प-अत्यधिक सौमनस्य का भाव उत्पन्न हुआ। यह एक सत्य है। उसके प्रभाव से मेरा दूसरा नेत्र उत्पन्न हो जाएपूर्ववत् स्वस्थ हो जाए। ज्योंही राजा ने उपर्युक्त शब्द आख्यात किए, तत्काल उसका दूसरा नेत्र उत्पन्न हो गया। राजा के वे नेत्र न तो स्वाभाविक ही थे, न दिव्य ही। ब्राह्मण वेशधारी शक्र को प्रदत्त नेत्र पुनः पूर्वावस्था में नहीं लाए जा सकते। नेत्र जब अन्य को उपहृत किये जा चुके, तब फिर दिव्य नेत्र उत्पन्न नहीं हो सकते । अतएव राजा के वे नेत्र सत्य-पारमिता-चक्षु कहे गए हैं। ज्योंही राजा के वे नेत्र उत्पन्न हुए, देवराज शक्र के प्रभाव से उसी क्षण समग्र राजपरिषद् वहाँ एकत्र हो गई, विशाल जन-समुदाय एकत्र हो गया। शक्र ने उसके समक्ष राजा की प्रशस्ति करते हुए कहा-"शिवि राष्ट्र के संवर्द्धक राजन् ! आपने जो भावोद्गार व्यक्त किए, वे धर्मानुगत हैं । आपको ये विलक्षण नेत्र प्राप्त हुए हैं । आप इन द्वारा दीवार, पाषाण-शिला तथा पर्वत के भी आर-पार चारों दिशाओं में सौ योजन पर्यन्त देखें, इतने विस्तार में स्थित पदार्थों का साक्षात् अनुभव करें। इन नेत्रों की यह असामान्य विशेषता है।" शक्र ने आकाश में खड़े होकर जन-समुदाय के बीच उपर्युक्त भाव प्रकट किए। उसने बोधिसत्त्व को सदा अप्रमादी रहने का सन्देश दिया और वह स्वर्ग में चला गया। बोधिसत्त्व विशाल जन-परिषद् द्वारा संपरिवृत थे। वे बड़े आनन्दोत्साह और ठाठ-बाट के साथ नगर में प्रविष्ट हुए, चन्दन-प्रासाद में गए । समग्र शिविराष्ट्र में यह बात परिसृत हो गई कि हमारे राजा को विलक्षण नेत्र प्राप्त हुए हैं। राष्ट्रवासियों के मन में राजा के प्रति असीम आदर था । वे उसके दर्शन हेतु विपुल उपहार लिए उपस्थित हुए। दान की महिमा बोधिसत्त्व ने विचार किया--यहाँ जो इतना विशाल जन-समुदाय एकत्र हुआ है, मुझे चाहिए, मैं उसके मध्य दान की महिमा का बखान करूं । तदनुसार उन्होंने राज-प्रासाद के द्वार पर एक विशाल मंडप का निर्माण करवाया। श्वेत राज-छत्र के नीचे राज-सिंहासन पर संस्थित हए, नगर में घोषणा करवाकर सभी श्रेणियों के लोगों को एकत्र किया, उन्हें सम्बोधित कर कहा-"शिवि राष्ट्र के निवासियो ! अब से दान दिये बिना स्वयं मत खाओ, पदार्थों का उपभोग मत करो, सुखोपभोग मत करो। ऐसा कौन-सा धन है, जो याचना करने पर न दिया जा सके । चाहे अपनी कितनी ही विशिष्ट तथा सुप्रिय वस्तु क्यों न हो, मांगने पर वह दी ही जानी चाहिए। यहाँ समागत समस्त शिविराष्ट्र निवासी मेरे नवीद्भूत विलक्षण नेत्रों को देख ही रहे हैं, जो दीवार, पाषाण-शिला तथा पर्वत तक के आर-पार १. यं मं सो याचितुं अगा, देहि चक्खू ति ब्राह्मणो। तस्स चक्खू नि पादासिं, ब्राह्मणस्स वनीब्बिनो ॥२४॥ मिथ्यो म अविसि पीति, सोमणस्सञ्च अनप्पकं, एतेन सच्चवझेन, दुतियं मे उपपज्जत्थ ।।२।। २. धम्मन भासिता गाथा, सीवीनं रट्रवद्धन। एतानि एव नेत्तानि, दिब्बानि पटिदिय्यरे ॥२६॥ तिरोकुड्डं तिरोसेलं, समतग्गय्ह पब्बतं । समन्ता योजन सतं, दस्सनं अनुभोन्तु ते ॥२७॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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