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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजामेघरथ : कबूतर व बाज : शिवि जा० ५७३ सत्त्व ने अपने बायें नेत्र से उसका वह नेत्र देखा, विचार किया-ओह ! मैंने अपना नेत्र दे डाला, वास्तव में बड़ा उत्तम दान हुआ। वह इससे अपने मन में अत्यन्त प्रीतियुक्त था, प्रसन्न था। उसने अपने पहले नेत्र की तरह दूसरा नेत्र भी दान कर दिया। ब्राह्मण वेशधारी शक ने वह दूसरा नेत्र भी अपने नेत्र में लगा लिया। उसने राजमहल से प्रस्थान किया। लोगों के दखते-देखते नगर से बाहर निकल गया और देव-लोक में चला गया।
राजा का औदासीन्य
कुछ समय के अनन्तर राजा के नेत्रों के घाव ठीक होने लगे। वे गड्ढे के रूप में नहीं रहे, उभरे हुए, मांस-पिण्ड परिपूर्ण गोलक की ज्यों हो गये। राजा की पीड़ा मिट गई। कुछ दिन महल में रहकर राजा ने विचार किया—मैं अन्धा हूँ। अन्धे को राज्य से क्या प्रयोजन ! उसने सोचा-मुझे चाहिए, मैं राज्य मंत्रियों को सौंप दूं, उद्यान में जाकर प्रव्रजित हो जाऊं, श्रमण-धर्म स्वीकार कर लूं, वनवासी हो जाऊं।
राजा ने मंत्रियों को बुलाया और अपना अभिप्राय उनके समक्ष प्रकट किया। उसने कहा-"मुख-प्रक्षालन हेतु जल आदि देने के निमित्त, एक परिचारक उसके पास रहे । शारीरिक शौच-कृत्य के स्थान पर पहुँचने के लिए उसके रहने के स्थान से वहाँ तक एक रस्सी बँधवा दी जाए।" शिविवंश के राष्ट्रोन्नायक राजा ने सारथि को अपने पास बुलाया और उसे आदेश दिया-"रथ को जोतो, मुझे यथास्थान पहुँचा दो।" मन्त्रियों ने श्रद्धा एवं आदरवश राजा को रथ द्वारा नहीं जाने दिया, वे उसको स्वर्ण-पालकी द्वारा स्वयं ले गए, उद्यान-स्थित सरोवर के तट पर पहुँचाया। चारों ओर सुरक्षा आदि की आवश्यक व्यवस्था कर दी।
शक्र का राजा के पास आगमन
__राजा सुखासन पर बैठा, अपने दान पर मन-ही-मन चिन्तन करने लगा। शक्र का सिंहासन चालित हुआ। उसने ध्यान लगाया । उसे कारण विदित हुआ। उसने विचार किया-शिविकुमार को वरदान देकर मैं उसके नेत्र पहले की ज्यों करूंगा। ऐसा सोचकर शक्र जहाँ राजा स्थित था, वहाँ आया। उसके आस-पास इधर-उधर टहलने लगा।
शिविकुमार के रूप में विद्यमान बोधिसत्त्व ने शक के पैरों की आहट सुनी, पूछा--- "यहाँ कौन है ?" शक्र ने राजा को उत्तर दिया--"राजर्षे ! मैं देवराज शक्र हूँ। आपके
१. चोदितो सिविराजेन, सीवको वचनङ करो। रओ चक्ख नि उद्धत्वा, ब्राह्मणस्स उपनामये ।
सचक्खु ब्राह्मणो आसि, अन्धो राजा उपाविसि ॥१६॥ २. ततो सो कतिपाहस्स, उपरूळ हेसु चक्खुसु ।
सूत आमन्तयि राजा, सिवीन रवद्धनो॥१७॥ योजेहि सारथि यानं, युतञ्च पटिवेदय । उद्यान-भूमि गच्छाम, पोक्खरओ वनानि च ॥१८॥ सो च पोक्खरणिया तीरे, पल्लङ केन उपाविसि। तस्य सक्को पातुरहु, देवराजा सुजम्पति ॥१६॥
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