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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
इस पर सीवक बोला – “राजन् ! नेत्र दान बड़ा दुष्कर कार्य है। आप विचार कर लें ।"
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राजा बोला - "मैंने अच्छी तरह विचार कर लिया है । अब तुम देर मत करो । मेरे साथ अधिक वार्तालाप मत करो । "
सीवक वैद्य सोचने लगा- मैंने आयुर्वेद शास्त्र की उच्च शिक्षा प्राप्त की है । मैं कुशल चिकित्सक हूँ । मेरे लिए यह समुचित नहीं होगा कि मैं राजा के नेत्रों में शस्त्र डालूं । इसलिए उसने तरह-तरह की औषधियों को पिसवाया । भैषज्य- चूर्ण तैयार किया । उसको नीले कमल में भरा | फिर राजा के दाहिने नेत्र में फूंका। नेत्र पलट गया, उलटा हो गया । वेदना होने लगी ।
सीवक ने शिवि राजा से कहा- "राजन् ! विचार कर लो । अब भी अपना निर्णय बदल दो । आपके नेत्र को पुनः ठीक करने का उत्तरदायित्व मेरा है।"
राजा ने वैद्य से कहा - "अपना कार्य चालू रखो, उसमें विलम्ब मत करो। "
वैद्य न नीले कमल में भैषज्य चूर्ण मरकर, फिर राजा के नेत्र में फूंका। नेत्र अपने आवरण-खोल में से निकाल आया । अत्यधिक वेदना हुई ।
वैद्य ने कहा - "महाराज ! एक बार फिर विचार कर लें । अब भी अपना निर्णय बदल दें । मैं आपके नेत्र को पूर्ववत् करने में सक्षम हूँ ।"
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राजा बोला - "वैद्यवर ! विलम्ब मत करो, अपना कार्य किए जाओ ।"
वैद्य ने तीसरी बार तीव्रतर भैषज्य चूर्ण राजा के नेत्र में फूंका। औषधि के प्रभाव से नेत्र घूम गया, अपने आवरण में से निकलकर नस-सूत्र में लटकने लगा ।
वैद्य ने फिर कहा - "राजन् ! अब भी सोच लें, इस अवस्था में भी आपके नेत्र को पहले की ज्यों बिठा सकता हूँ, ठीक कर सकता हूँ ।"
राजा ने कहा—“अपना कार्य करो, देर मत करो। "
राजा को अत्यधिक पीड़ा हुई । रक्त बहने लगा । पहने हुए कपड़े खून से लथपथ हो गए । रानियां और मन्त्री राजा के चरणों में गिर पड़े, रोते-पीटते हुए निवेदन करने लगे-"देव ! नेत्र दान न करें ।"
राजा ने दृढ़ता से वह घोर वेदना सहते हुए वैद्य को सम्बोधित करके कहा"बिलम्ब मत करो, अपना कार्य सम्पन्न करो। "
वैद्य ने कहा - "राजन् ! अच्छा, जैसी आपकी आज्ञा ।" उसने अपने बांयें हाथ से नेत्र को पकड़ा और दाहिने हाथ में शस्त्र लेकर नेत्र के नस-सूत्र को काट डाला । नेत्र बोधिसत्त्व के हाथ में रख दिया ।
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नेत्र दान
राजा ने अपने बायें नेत्र से दाहिने नेत्र को देखा, भीषण वेदना सही, ब्राह्मण को अपने पास बुलाया और कहा. - "ब्राह्मण ! मैं अपने इस नेत्र से सर्वज्ञत्व रूप नेत्र को शत गुणित, सहस्र गुणित प्रिय समझता हूँ। मेरे इस नेत्र का दान सर्वज्ञत्व रूप नेत्र प्राप्त करने का हेतु बने मे यही भावना है । ब्राह्मण ने दिए गए नेत्र को अपने नेत्र में लगाया । देव - प्रभाव से वह नेत्र खिले हुए नील कमल के सदृश हो गया । शिविकुमार के रूप में विद्यमान बोधि
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