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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजामेघरथ : कबूतर व बाज : शिवि जा० ५७१
उनका यह कथन सुन कर शिविकुमार ने कहा-"जो मनुष्य 'दूंगा' कहकर फिर न देन की बात मन में लाता है, वह पथ्वी पर गिरे हए बन्धन को अपने गले में डालता है। 'दूंगा' ऐसा कहकर जो न देने का मन में विचार लाता है, वह पापी है, पापरत है । वह यम के घर- नरक को प्राप्त होता है, न रक गामी होता है । दूसरी बात यह है, याचक जिस वस्तु की याचना करे, उसको वही वस्तु दी जाए, यह उचित है। वह जिस वस्तु की याचना नहीं करता, वह उसे दी जाए, यह संगत नहीं है। इसलिए मैं याचना करने वाले ब्राह्मण को वही दूंगा जो वह मुझमे मांग रहा है।"
तब मन्त्रियों ने राजा से पूछा-'यह तो बताएं किस वस्तु की आकांक्षा से आप नेत्रों का दान कर रहे हैं। महाराज ! दीर्घ आयुष्य, उत्तमवर्ण, पुष्कल सुख तथा बलइनमें से किस वस्त की अभ्यर्थना हेत चक्षओं का दान कर रहे हैं। ये तो सब आपको प्राप्त
"शिवि-वंशीय नृपतियों में सर्वोत्तम नृपति परलोक के लिये अपने नेत्रों का दान क्यों करें अर्थात् हमारा अनुरोध है, ऐसा न करें।"२
राजा ने उनसे कहा- "न मैं यश के लिए, न पुत्र के लिए, न धन के लिए और न राष्ट्र के लिए ही यह दान दे रहा हूँ। दान देना सात्त्विक पुरुषों का धर्म है, पुरातन आचार है ---प्राचीन परम्परानुगत उत्तम कार्य है, यही सोचकर मुझे दान देने में बड़ा आनन्द अनुभव होता है।''
मन्त्रियों ने जब बोधिसत्त्व का कथन सुना तो वे हतप्रभ हो गए।
सीवक वैद्य : नेत्रोत्पादन
बोधिसत्त्व ने सीवक वैद्य से कहा- "सीवक ! तुम मेरे सखा हो, मेरे मित्र हो, तुम सुशिक्षित हो सयोग्य हो, जसा मैं कहता हूँ, वैसा करो। दान देने की इच्छा के अनुरूप तुम मेरी आँखें निकाल लो और उन्हें याचक के हाथ में स्थापित कर दो-रख दो।'४
१. यो वे दस्संति वत्वान, अदाने कुरुते मनो। भुम्या सो पतितं पास, गीवाय पटिमुञ्चति ॥ १० ॥ यो वे दस्सं ति वत्वान, अदाने कुरुते मनो। पापा पापरतो होति सम्पत्तो यम-सादनं ॥११॥ यं हि याचे तं हि ददे, य न याचे न तं ददे ।
स्वाहं तं एव दस्सामि, यं मं याचति ब्राह्मणो ॥ १२ ॥ २. आयुं न वण्णं नु सुखं बलं न, किं पत्थयानो न जनिन्द देसि ।
कथं हि राजा सिविनं अनुत्तरो, चक्खूनि दज्जा परलोक हेतु ॥ १३ ॥ ३. न वाहं एतं यससा ददामि, न पुत्तं इच्छे न धनं न रहें।
सतञ्च धम्मो चरितो पुराणो, इच्छेव दाने रमते मनो ममं ॥१४॥ ४. सखा च मित्तो च ममासि सीवक ! सुसिविखतो साधु करेहि मे वचो।
लद्धं त्वं चक्खूनि ममं जिगिसतो, हत्थसु ठपेहि वनिबकस्स ॥१५॥
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