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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशालन "राजन् ! जो देवों में सुजम्पति कहा जाता है, मनुष्य-लोक में जो मघवा नाम से विश्रुत है, मैं उसी द्वारा अनुशिष्ट-अनुप्रेरित होकर नेत्र की याचना करने आपके पास आया हूं। मैं याचक हूँ, मैं नेत्र की मांग कर रहा हूँ। यह अनुत्तर-सर्वोत्तम दान मुझे दो। अपना सर्वश्रेष्ठ अंग नेत्र प्रदान करो, जिसे देना बहुत कठिन है।'
शिविकुमार द्वारा स्वीकृति
शिविकुमार राजा ने कहा-"जिस अर्थ-प्रयोजन हेतु तुम आये हो, जिस पदार्थ की अभ्यर्थना करते हो-कामना करते हो-याचना करते हो, तुम्हारा वह संकल्प पूर्ण हो। ब्राह्मण ! तुम चक्षु प्राप्त करो। तुम एक चक्षु मांगते हो, मैं तुम्हें दोनों चक्षु देता हूँ। तुम लोगों के समक्ष चक्षुष्मान् हो जाओ, तुम्हारी वह इच्छा पूर्ण हो।"
राजा ने उपर्युक्त रूप में अपना आशय व्यक्त कर सोचा, यहीं नेत्र निकालकर देना समुचित नहीं होगा। वह ब्राह्मण को अपने साथ लेकर अन्तःपुर में गया। वहाँ वह राजासन पर स्थित हुआ। उसने सीवक नाम वैद्य को बुलवाया। वैद्य आया। राजा ने वैद्य से कहा'मेरी आँखें निकालो।"
राजा अपने नेत्र निकलवाकर ब्राह्मण को दान में देना चाहता है, यह सुनकर सारे नगर में कुहराम मच गया था। सभी हतप्रभ थे। सेनापति, रानियाँ नागरिक एवं अन्तःपुर के जन एकत्र होकर राजा के पास आए और उसे वैसा करने से रोकते हुए कहने लगे"देव ! चक्षु-दान न करें। हम सब की बात न टालें । महाराज ! धन, मोती, वैडूर्य, रत्न आदि प्रदान करें, रथ प्रदान करें, आभूषणों से सुशोभित अश्व प्रदान करें स्वर्ण जैसे चमकीले, सन्दर वस्त्रों से सुसज्जित हाथी प्रदान करें। राजन ! ऐसा दान दें कि हम शिवि राष्ट्र के लोग प्रसन्न होते हुए अपने-अपने यानों एवं रथों के साथ चारों ओर आपको संपरिवृत किए
१. यं आहु देवेसु सुजम्पतीति, मघवा ति नं आहु मनुस्स-लोके। तेनानसिठो इधमागतोस्मि वनिब्बको चक्खू पथानि याचितुं ॥ ३॥ वनिब्बको मय्ह वणि अनुत्तरं, ददाहि मे चक्खु पथानि याचितो। ददाहि मे चक्खु पथं अनुत्तर, यं आहु नेत्तं पुरिसेन दुच्चयं ॥४॥ २. येन अत्थेन आगञ्छि , यं अत्थं अभिपत्थयं । ते ते इझन्तु संकप्पा, लभ चक्खूनि ब्राह्मण ॥ ५॥ एक ते याचमानस्स, उभयानि ददामहं । स चक्खुमागच्छ जनस्स पेक्ख तो , यदिच्छसे त्वं तं ते समिझतु ॥ ६ ॥ ३. मा नो देव अदा चक्खं, मा नो सब्बे पराकरि।।
धनं देहि महाराज, मुत्ता वेव्ठुरिया बहू ॥ ७ ॥ युत्ते देव रथे देहि. आजानीये चलङ्केत । नागे देहि महाराज हेमकप्पनवाससे ।।८।। यथा तं सिवयो सब्बे, सथोग्गा सरथा सदा । समन्ता परिकरव्यु, एवं देहि रथेसभ ॥६॥
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