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तत्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग -- राजामेघरथ : कबूतर व बाज : शिवि जा० ५६९
यदि कोई याचक चाहेगा कि उसे अपने घर के काम में कष्ट है, मैं उसके घर जाकर सेवक बनकर रहूँ तो मैं अपने राजवेश का परित्याग कर यथावत् रूप में सेवक का कार्य करूंगा, उसकी सेवा हेतु निरन्तर तत्पर रहूंगा । यदि कोई याचक मेरे नेत्रों की मांग करेगा तो मैं ताड़ के गोलक – गूदे की ज्यों अपने नेत्र निकाल कर उसे दे दूँगा । अपना भाव और विशद करते हुए शिविकुमार ने पुनः कहा- ऐसा कोई मनुष्य- - मनुष्य द्वारा दिये जान योग्य दान मैं नहीं देखता, जो मेरे द्वारा अदेय हो - जिसे मैं न दे सकूं। यदि कोई मेरे चक्षु भी मांगेगा तो अकम्पित भाव से- - जरा भी नहीं कांपता हुआ मैं दे दूँगा । '
तदनंतर राजा ने षोडस कलशों से स्नान किया। वह उत्तम वस्त्रों से तथा आभूषणों से सुसज्जित हुआ, विविध प्रकार के श्रेष्ठ खाद्य, पेय पदार्थ ग्रहण किए। आभूषणों से सुशोभित हाथी पर आरूढ हुआ और दान-शाला में आया ।
शक्र द्वारा परीक्षा
देवलोक में स्थित शक्र ने राजा शिविकुमार के विचार जाने । शक्र सोचने लगाशिविकुमार आज किसी याचक द्वारा याचना किए जाने पर अपने नेत्र तक निकाल कर दे देने की बात सोच रहा है, यह बहुत दुष्कर कार्य है । वह ऐसा कर सकेगा या नहीं, मुझे परीक्षा करनी चाहिए । परीक्षा हेतु शक्र ने एक वृद्ध एवं अन्धे ब्राह्मण का रूप बनाया और वह यथास्थान पहुँचा | राजा दान -शाला में ज्यों ही प्रविष्ट हो रहा था, उसने एक ऊँचे स्थान पर खड़े होकर हाथ उठाया, राजा का जयनाद किया। राजा ने सुना, अपना हाथी उस ओर बढ़ाया और पूछा - "ब्राह्मण ! क्या कहते हो ? ब्राह्मण वेशधारी शक ने कहा"महाराज ! आपने दान का जो महान् संकल्प किया है, उसका कीर्तिनाद समस्त लोक में परिव्याप्य हो गया है । सभी उससे सिहर उठे हैं ।"
ब्राह्मण द्वारा नेत्र - याचना
ब्राह्मण ने आगे कहा- "मैं नेत्रहीन हूँ । दूर रहने वाला वृद्ध ब्राह्मण हूँ | मैं नेत्र मांगने आया हूँ । तुम्हारे पास दो नेत्र हैं, मुझे अपना एक नेत्र दे दो। हम दोनों एक-एक नेत्र वाले हो जायेंगे ।"२
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शिवकुमार के रूप में विद्यमान बोधिसत्त्व ने विचारा - मैंने अभी महल में बैठे-बैठे जो चिन्तन किया, वह इतना शीघ्र सफल हो रहा है, यह मेरा कितना बड़ा सौभाग्य है । आज मेरी मनः कामनापूर्ण होगी । आज मैं ऐसा दान दूंगा, जैसा पहले कभी नहीं दिया । राजा मन ही मन अत्यन्त प्रसन्न था । उसने कहा- "याचक ! तू किससे अनुशिष्ट - अनुप्रेरित होकर, किसके द्वारा कहे जाने पर यहां आया है। तू नेत्र जैसे सर्वोत्तम अंग को, जिसे सभी दुस्त्यज — कठिनाई से त्यागने योग्य — देने योग्य मानते हैं, मांग रहा है ।'
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१. यं किञ्ञि मानुसं दानं, योपि याचेय्य मं
अदिन्नं मेन चक्खु, ददेश्यं अपस्सं थेरो व, चक्खुं याचितुं एकत्ता भविस्साम, चक्खुं मे देहि ३. केनानु सिट्ठी इधमागतो सि, बनिब्दक चक्खु पथानि याचितुं । सुदुच्चजं याचसि उत्तम, यं आहु नेत्तं पुरिसेन दुच्चजं ॥ २ ॥
विज्जति । अविकम्पितो || आगतो । याचितो ॥ १ ॥
२. दूरे
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