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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ वार्तालाप कर रहे हो? भिक्षुओ ने वार्तालाप का विषय निवेषित किया। शास्ता बोले"भिक्षुओ ! बाह्य-पदार्थों का दान देना सरल है। पुरावर्ती पंडित - विवेकशील जन सारे जम्बू-द्वीप को आश्चर्यचकित करते हुए प्रति छः-सात सहस्र का विसर्जन कर दान करते रहे, किन्तु, बाह्य-पदार्थों के दान से परितुष्ट नहीं हुए । उनका चिन्तन था, जो अपनी प्रिय वस्तु का दान करता है, वही प्रिय वस्तु प्राप्त करता है। उन्होंने समागत याचकों को अपने नेत्र तक निकालकर दे दिए।
शास्ता ने पूर्वजन्म की एतत्सम्बद्ध कथा का इस प्र बोधिसत्व महाराज शिवि के पुत्र रूप में
पुरातन समय में शिवि नामक राष्ट्र था। अरिठ्ठपुर नामक नगर था, जो शिवि राष्ट्र की राजधानी था। महाराज शिवि वहाँ का राजा था। तब बोधिसत्त्व ने महाराज शिवि के पुत्र रूप में जन्म लिया। उसका नाम शिविकुमार रखा गया । वह बड़ा हुआ। विद्याध्ययन हेतु तक्षशिला गया। विद्या, कला, शिल्प आदि का शिक्षण प्राप्त किया, उनमें निष्णात हुआ । वापस अपने राष्ट्र में लौटा। पिता को अपना शिल्प-कौशल दिखलाया। पिता प्रसन्न हुआ। उसे उपराजा बना दिया। शिविकुमार की दानशीलता
कुछ समय बाद राजा की मृत्यु हो गई। शिवि कुमार राज्य-सिंहासन पर आसीन हुआ। वह चार आगतियों से अपने को बचाता हुआ, दश राजधर्मों के प्रतिकूल आचरण न करता हुआ धर्म पूर्वक राज्य करने लगा। शिविकुमार बहुत दानप्रिय था। उसने नगर के चारों दरवाजों पर, नगर के बीच में तथा राज भवन के दरवाजे पर-इस प्रकार छः स्थानों पर छ: दान शालाओं का निर्माण कराया । उनमें वह नित्यप्रति छः-सात सहस्र व्यय करता हुआ दान दिलवाता। प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा के दिन वह दानशालाओं में जाता तथा दिए जाते दान का निरीक्षण करता। मुंह मांगे दान का संकल्प
एक समय की बात है, पूर्णिमा का दिन था। प्रातःकाल शिविकुमार श्वेत राज-छत्र के नीचे राज-सिंहासन पर स्थित था। वह अपने द्वारा अनवरत दिये जाते दान पर चिन्तनरत था। वह सोचने लगा-ऐसा कोई भी बाह्य-पदार्थ मुझे दृष्टिगत नहीं होता, जो मैंने दान में नहीं दिया हो, किन्तु मात्र बाहरी वस्तुओं के दान से मुझे परितोष नहीं होता। मेरी आकांक्षा है, मैं कोई अपना आन्तरिक, निज से सम्बद्ध दान दूं। कितना अच्छा हो, आज जब मैं निरीक्षण हेतु दान-शाला में जाऊं तो याचक मुझ से वहाँ किसी बाह्यपदार्थ की याचना न कर, मेरी कोई निजी वस्तु माँगे तथा अपनी इच्छा के अनुसार उसे प्राप्त करें। यदि कोई याचक मुझ से मेरे हृदय के मांस की याचना करेगा तो मैं छुरी से अपना वक्षस्थल विदीर्ण कर, निर्मल जल में से जैसे नाल सहित कमल उत्पादित किया जाए, उसी तरह चूते हुए रक्त-बिन्दुओं के साथ मैं अपने हृदय का मांस उखाड़कर प्रदान कर दूंगा । यदि कोई याचक मेरी देह के मांस की मांग करेगा तो मैं पाषाण पर अक्षर उत्कीर्ण करने की टांकी से चमड़ी को छीलकर, देह का मांस उतारकर उसे दे दूंगा। यदि कोई याचक मेरे रक्त की याचना करेगा तो में पूरी तरह भरे बर्तन की ज्यों उसे रक्त से आपूर्ण कर दूंगा।
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