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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजामेधरथ : कबूतर व बाज : शिवि जा० ५६७ कर क्रमशः अपने सब वस्त्र उतार दिये । वे सर्वथा निरावरण, नग्न होकर नृत्य करने लगीं, मेघरथ को लुभाने का प्रयास करने लगीं, काम-याचना करने खगी, कुत्सित काम-चेष्टाएँ करने लगीं, किन्तु, वह सब व्यर्थ हुआ। वे निराश हो गईं। इस प्रकार अन्त में इन्द्राणियों ने अपनी पराजय स्वीकार की। राजयोगी मेघरथ विजयी हुआ। इन्द्राणियों ने अपनी माया का संवरण किया। प्रातःकाल हुआ। राजा मेधरथ ने अपने नेत्र खोले। उसके सम्मुख हाथ जोडे इन्द्राणियाँ खड़ी थीं। इन्द्राणियों ने अपना रिचय दिया। परीक्षा हेतु अपने आने तथा अपने द्वारा कत दुष्प्रयत्न में विफल होने की बात कही। राजा से अपने अपराध के लिए क्षमा-याचना की और वापस स्वर्ग में लौट गई। एक शम संयोग बना--धन रथ नामक केवली पधारे। मेघरथ ने केवली भगवान की देशना सूनी। चारित्र-ग्रहण करने को उत्सुक हआ। केवली भगवान से अभ्यर्थना की"भगवन् ! अपने राज्य का दायित्व मुझ पर है। यथोचिततया उसे सौंपकर, उसकी समीचीन व्यवस्था कर वापस आऊं, तब तक कपा कर आप यहीं विराजें। मैं आपसे संयम ग्रहण करना चाहत केवली भगवान ने कहा- "शुभोद्यम में कभी प्रमाद न करना।" मेघरथ द्वारा संयम : तप : समाधि-मरण मेघरथ ने केवली भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया। अपने राजप्रासाद में आया, अपने भाई दृढ़रथ को राज्य सम्भालने का अनुरोध किया। दृढ़रथ के मन में भी वैराग्य था। इस घटना से उसे और बल मिला। उसने राज्य लेना स्वीकार नहीं किया। उसने राजा से कहा- मैं भी आपके साथ ही श्रमण-दीक्षा स्वीकार करूँगा।" तब राजा मेघरथ ने अपने पुत्र मेधसेन को राज्याभिषिक्त किया तथा अपने भाई दृढ़रथ के पुत्र रथसेन को यवराज बनाया। मेघरथ तथा दृढ़रथ–दोनों भाई केवली भगवान् की सेवा में आए, श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। मुनि मेघरथ ने शुद्धि संयम का पालन किया। महासिंहनिष्क्रीडित घोर तप किये। अन्त में अनशन पूर्वक समाधि-मरण प्राप्त किया। वह सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव के रूप में उत्पन्न हुभा ।' शिवि जातक धर्म-सभा में भिक्षुओं का वार्तालाप एक दिन धर्म-सभा में भिक्षुओं के बीच परस्पर वार्तालाप चल रहा था । कतिपय भिक्षु कह रहे थे-"आयुष्मानो ! कौशल के राजा ने असदृश-असाधारण दान दिया, पर, वह उस प्रकार के दान से भी परितुष्ट नहीं हुआ। दश बलधारी शास्ता का धर्मोपदेश श्रवण कर उन्हें एक लक्ष मूल्य का शिवि देश में बना वस्त्र दान में दिया। आयुष्मानो ! पुनरपि राजा को दान से परितोष नहीं होता था। वह और अधिक देने की भावना लिए रहता।' शास्ता द्वारा इंगित शास्ता उधर आए। उन्होंने बातचीत में लगे भिक्षुओं से पूछा- "भिक्षुओ ! क्या १. आधार- वसुदेव हिंडी, जैन कथा माला, भाग २० ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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