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५६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन अनशीलन
[खण्ड : ३ __उस समय ईशानेन्द्र अपने अन्तःपुर में विद्यमान था। सहसा उसके मुंह से "भगवन् ! आपको नमस्कार हो"-ये शब्द निकले । तदनन्तर उसने प्रणमन किया।
इन्द्राणियों ने जब यह देखा तो बोलीं-"स्वामिन् ! आप इस असमय में-रात्रिवेला में किसको नमस्कार कर रहे हैं ? आप के भक्ति-विह्वल स्वर से ऐसा प्रतीत होता है, जिसे आप नमस्कार कर रहे हैं, वह अवश्य ही कोई पूजनीय महापुरुष है।"
इन्द्र ने श्रद्धा-संभृत शब्दों में कहा-“जिसे में इस समय प्रणाम कर रहा हूँ, निश्चय ही वह महान् आत्मा है। मैं राजा मेघरथ को प्रणाम कर रहा हूँ। वह इस समय तेले की तपस्या में कायोत्सर्ग स्थिति में विद्यमान हैं।"
इन्द्राणियाँ बोली-"स्वामिन् ! ऐसे तप तो मनुष्य लोक में अनेक साधक करते ही रहते हैं। इसमें ऐसी क्या विलक्षणता है ?"
इन्द्र-“देवियो ! राजा मेघरथ अत्यन्त दृढचेता है, अविचल संकल्प का धनी है। वह परिषह-विजेता है। हर प्रकार के परिषह को आत्म-बल द्वारा सहज रूप में सह जाने में वह समर्थ है। गृहस्थ में होते हुए भी उसकी ध्यान-साधना बहुत ऊंची है। संसार की कोई भी शक्ति उसे ध्यान से विचलित नहीं कर सकती।"
यह सुनकर इन्द्राणियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोलीं-"एक गृहस्थ ऐसा दृढ़ संयमी हो, दृढ़ संकल्पी हो, यह समझ में नहीं आता। गृहस्थ तो अनायास ही स्त्रियों से आकृष्ट हो जाते हैं और उनके मोह में पड़ जाते हैं।" ।
इन्द्र--"देवियो ! राजा मेघरथ वैसा नहीं है। उसे जगत् की कोई भी सुन्दरी विचलित नहीं कर सकती।"
इन्द्राणियाँ "क्या स्वर्ग की देवांगनाएँ भी उसे विचलित नहीं कर सकती देवराज ?"
इन्द्र-“हाँ, देवलोक की समग्र सुन्दरियाँ भी उसे आकृष्ट नहीं कर सकतीं, विचलित नहीं कर सकतीं।"
सुरूपा तथा अतिरूपा नामक इन्द्राणियों ने इसे नारी सौन्दर्य का अपमान समझा। उन्हें अपने रूप-लावण्य का बड़ा गर्व था । उनका विश्वास था कि हम अपने रूप द्वारा जगत् के हर किसी प्राणी को मोहित करने में समर्थ हैं। उन्होंने निश्चय किया, इस राजा की परीक्षा करें। तदनुसार वे वहाँ उपस्थित हुई, जहाँ राजा कायोत्सर्ग में लीन था। इन्द्राणियों के वहाँ पहुँचते ही सारा वातावरण स्वयं परिवर्तित हो गया। वह कामोद्दीपन की सामग्रियों से परिव्याप्त हो गया। चारों ओर हरीतिमा छा गई। सभी ऋतुओं में खिलने वाले पुष्पों से युक्त लताओं और वृक्षों से वह स्थान पर्यावृत हो गया। वहाँ कमलभूषित जलाशय निर्मित हो गये। इन्द्राणियों के साथ अन्य अनेक देवांगनाएँ भी वहाँ आ उपस्थित हुई।
कामोत्तेजक नृत्य एवं संगीत का दौर चला। काफी समय तक चलता रहा । नृत्य करनेवाली देवांगनाओं के पैर दुखने लगे, गान करनेवाली देवियों के गले भारी हो गये, किन्तु, मेघरथ मेरु की ज्यों सर्वथा अप्रकम्प, अडोल, अविचल एवं स्थिर रहा, अपने ध्यान में तन्मय रहा, सर्वथा विप्रलीन रहा। वह स्थाणु-सूखे ढूंठ के सदृश अपने स्थान पर कायोत्सर्ग में अडिग, अवस्थित रहा।
रात के तीन प्रहर व्यतीत हो गये। चौथा प्रहर चल रहा था। इन्द्राणियों ने, देवांगनाओं ने अपने अन्तिम अस्त्र-निर्वस्त्र अंग-प्रदर्शन का प्रयोग किया। उन्होंने एक-एक
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