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सत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग - राजामेघरथ : कबूतर व बाज : शिवि जा० ५६५
सेवकों ने उन्हें यह भी बताया कि पक्षी मनुष्य की बोली में बात कर रहे हैं। यह सुनते ही राजा मेघरथ के पारिवारिक सदस्य, राज्य सभा के सदस्य तथा नगर के लोग तत्काल पौषधशाला में आ गये ।
सेवक छुरी और तराजू ले आये । राजा ने तराजू को अपने सामने रखा। उसके एक पलड़े में कबूतर को बिठाया और एक पलड़े में अपनी जांघ का मांस काट-काट कर डालने लगा। ज्यों-ज्यों मांस डालता गया, मानो कबूतर का पलड़ा भारी होता गया । राजा ने अपनी दोनों जंघाओं का मांस खरोंच कर पलड़े में डाल दिया, किन्तु, जिसमें कबूतर बैठा था, वह पलड़ा फिर भी भारी रहा। यह देखकर राजा स्वयं पलड़े में जा बैठा । उपस्थित परिजनों, अधिकारियों तथा लोगों में हाहाकार मच गया। रानी प्रियमित्रा रो पड़ी, बोली- “स्वामिन् ! यह क्या कर डाला आपने ! अपनी स्वयं की ही बलि दे दी !" अमात्यवृन्द के मुँह से निकला -- “पृथ्वीनाथ ! आपका जीवन तो अमूल्य है । इससे न जाने कितनों का उपकार होता, कितनों का उद्धार होता, कितनों की सेवा होती । ऐसे जीवन को यों मिटा रहें हैं ?"
उपस्थित लोग एक स्वर में चिल्ला उठे - "आज हम अनाथ हो गये । महान् धार्मिक, महान् परोपकारी, दया के अवतार महराज मेघरथ की छत्र-छाया आज हमारे ऊपर से उठ गई ।
"
देवमाया
क्रन्दन, कोलाहल तथा शोक इतना व्याप्त गया था कि पक्षियों - कबूतर तथा की ओर किसी का ध्यान तक नहीं गया। लोगों ने जब पौषधशाला की ओर दृष्टि डाली तो उन्हें आभास हुआ - सहसा पौषधशाला में सर्वत्र एक दिव्य प्रकाश फैल रहा है। वह प्रकाश एक द्युतिमय देवाकृति में परिवर्तित हो गया । देव ने राजा के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कहा - "महाराज मेघरथ । आपकी करुणाशीलता, आपकी दयार्द्रता धन्य है, आप धन्य हैं ! शरणागत की रक्षा के लिए अपनी देह तक की बलि देकर आपने दया का दानशीलता का एक अद्वितीय उदाहरण उपस्थित किया है, जो युग-युगान्त पर्यन्त आपको अजर-अमर बनाये रखेगा । यह सब आपकी परीक्षा के लिए मेरा ही उपक्रम था, मेरे द्वारा उपस्थापित माया थी, जिसे मैंने समेट लिया है। मैं इस अपराध के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ । आपके अनुपम बलिदान तथा असाधारण त्याग से मैं कृतकृत्य हो गया, धन्य हो गया । "
दिव्य प्रकाश विलीन हो गया। लोगों ने देखा, न वहाँ कबूतर था और न बाज था। राजा सर्वांगपूर्ण तथा स्वस्थ था !
इन्द्राणियों द्वारा परीक्षा
महाराज मेघरथ महान् करुणाशील एवं अद्भुत दानी था, यह पूर्वोक्त घटना से स्पष्ट है ।
वह साधना तथा संयम में भी उतना ही दृढ़ था, अत्यन्त जितेन्द्रिय था, उच्च चरित्र-सम्पन्न था और स्थिरचेता था। एक बार वह तेले की तपस्या में था। रात के समय एक शिला पर दैहिक आसक्ति और ममता से अतीत-- मानो देह है ही नहीं, ऐसे अनासक्त भाव से आविष्ट ध्यान - मुद्रा में अवस्थित था ।
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