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________________ ५६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ बनें। भूख से मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। आप मुझे उपदेश दे रहे हैं। भूखा उपदेश का पात्र नहीं है। कृपा कर मुझे मेरा शिकार दीजिए, आप अपने धर्म की आराधना कीजिए । " राजा -"पक्षिराज ! इस समय मेरा सबसे पहला धर्म मेरे शरणागत की रक्षा करना है, जो करूंगा।" बाज –“राजन् ! कितना विलक्षण है, आपका धर्म ! आप एक के प्राणों की रक्षा कर रहे हैं और दूसरे के प्राणों का हरण कर रहे हैं। किसी भूखे के सामने से परोसे हुए भोजन का पात्र हटा लेना, उसको भूख से तड़फाना, तड़फा-तड़फा कर उसके प्राण हर लेना, यही आपका धर्म है ? आपका वह धर्म अभी मेरे प्राण ले लेगा । मैं भूख से इतना परिश्रान्त और क्षीण हो गया हूँ कि अभी दम तोड़ दूंगा। बार-बार कहता हूँ — मैं भूखा हूँ, राजन् ! मुझे मेरा भोजन दीजिए ।" राजा - "बाज ! मैं तुम्हें भूख से तड़फाकर नहीं मारना चाहता। मैं तुम्हारी क्षुधा मिटाऊंगा। तुम्हें सात्त्विक भोजन दूंगा । उसे ग्रहण करो। अपनी क्षुधा शान्त करो। कबूतर को देने का आग्रह मत करो। " बाज - "महाराज ! आप जिसे सात्विक भोजन कहते हैं, मैं उसे समझता हूँ । वह मेरे लिए किसी काम का नहीं है । मेरा भोजन मांस है, और वह भी ताजा मांस । पर्युषित एवं सड़े-गले मांस से मैं तृप्त नहीं होता राजन् ! मुझे ताजा मांस दीजिए, तभी मैं तृप्त हूंगा । अन्यथा मेरे प्राण निकल जायेंगे, जिसके आप जिम्मेवार होंगे । आपको मेरी हत्या लगेगी । आप पाप के भागी होंगे ।' राजा मेघरथ बड़ी दुविधा में पड़ गया, करे तो क्या । वह मन ही मन कहने लगा- मैं कबूतर को नहीं लौटा सकता, उसे बाज को नहीं सौंप सकता । क्योंकि वह मेरी शरण में है । दूसरा पहलू भी विचारणीय है । यदि बाज के प्राण निकल गये तो वह भी हिंसा का कार्य होगा; क्योंकि न चाहते हुए भी, न सोचते हुए भी उसका निमित्त तो एक अपेक्षा से मैं हुआ ही । मैं पौध में हूँ । इस स्थिति में निमित्त से किसी का प्राणान्त हो जाए, यह बहुत बुरा है, अनर्थ है । बाज ताजा मांस खाने पर कटिबद्ध है । मांसाशन उसकी जातिगत प्रवृत्ति है। उसे क्या दोष दिया जाए ? अब क्या किया जाए ? इस समस्या को कैसे सुलझाया जाए ? राजा गहराई से सोचने-विचारने में मग्न था । बाज भूख की व्याकुलता के कारण आतुर था। वह पुनः कहने लगा- "महाराज ! मेरे प्राण निकल रहे हैं । वे केवल कंठ में अटके हैं। आप कृपा कर जल्दी निर्णय कीजिए, मुझे बचाइये ।" स्थिति का तकाजा था, राजा ने मन-ही-मन निर्णय किया। वह बाज से बोला"अच्छा तो तुम्हें मांस चाहिए ?" बाज - "हां, महाराज ! ताजा मांस हो और वह परिमाण में कम से कम कबूतर जितना अवश्य हो । " राजा ने बाज से कहा- "थोड़ा धीरज रखो। तुम्हारा भोजन तुम्हें अवश्य मिलेगा ।" करुणा का अनुपम उदाहरण राजा ने सेवकों को आज्ञा दी - "एक छुरी और तराजू लाओ ।" सेवक बात को मन में हज्म नहीं कर सके । वे जब छुरी और तराजू लेने गये, तब राज-परिवार के सदस्यों को तथा दूसरे लोगों को इस विलक्षण घटना से अवगत करा दिया । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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