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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग --- राजामेघरथ: कबूतर और बाज : शिवि जा० ५६३ विगलित हो गया । उसने कबूतर की पीठ पर दया भाव से हाथ फेरा, उसे पुचकारा और दुलारा |
आश्वासन
स्नेहसिक्त वाणी में उसे आश्वस्त करते हुए राजा ने कहा – “ कपोत ! जैसे बच्चा अपनी माँ की गोद में सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार तुम मेरी गोद में सुरक्षित हो । अब तुम जरा भी मत घबराओ । तुम्हें यहाँ कोई डर नहीं है । तुम्हारी रक्षा में मुझे यदि अपने प्राण भी देने पड़ें तो दूंगा ।"
राजा से अभय-दान प्राप्त हुआ । पक्षी का भय अपगत हुआ । उसने राजा की गोद में अपने को सर्वथा आश्वस्त एवं सुरक्षित अनुभव किया ।
श्येन का पौषधशाला में आगमन
तभी एक श्येन - बाज झपटता हुआ पौषधशाला के द्वार से भीतर आया। उसके नृशंस, क्रूर नेत्र अपने शिकार कपोत पर लगे थे । कपोत ने ज्यों ही बाज को देखा, वह सकपका गया, उसने अपने नेत्र बन्द कर लिये, भीतिवश उसका शरीर सिकुड़ गया । वह अपने आश्रयदाता राजा मेघरथ की गोद में दुबक गया, चिपक गया । राजा ने आश्वस्त करने हेतु कबूतर पर अपने दोनों हाथ रख दिये । बाज कुद्ध था । उसने क्रोधावेश में कहा - " राजन् ! यह मेरा शिकार है, यही मेरा भोजन है, इसे मुझे सौंप दीजिए ।"
राजा मेघरथ और श्येन का आलाप संलाप
राजा मेघरथ शान्त था । वह दृढ़तापूर्ण स्वर में बोला - "पक्षिराज ! क्या तुम नहीं जानते, हम क्षत्रिय हैं। जो शरण में आ जाता है, उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है । उसे किसी प्रकार का कष्ट हो, हानि हो, हमें वह सब असह्य होता है ।"
बाज बोला – “राजन् ! आप जो कहते हैं, अपनी दृष्टि से ठीक है, किन्तु, आप तो विज्ञ हैं, हमारा जाति-स्वभाव आप से अज्ञात नहीं है। हमारा भोजन मांस है । तदर्थ हम पक्षियों का शिकार करते हैं । उनके मांस से अपनी क्षुधा शान्त करते हैं । इसके अतिरिक्त अपनी भूख मिटाने का हमारे पास और कोई उपाय नहीं है ।"
राजा - " अपने लिए, अपने पेट के लिए किसी का वध करना, मांस खाना हिंसा है, त्याज्य है ।"
बाज - "राजन् ! हमें धर्म-अधर्म का, हिंसा-अहिंसा का कोई ज्ञान नहीं है और न हमारी उसमें उत्सुकता ही है । हमें केवल अपने शरीर निर्वाह की चिन्ता है; इसलिए भूख लगने पर शिकार करना, मांस से अपनी क्षुधा मिटाना, यही हमारे जीवन का नित्य-क्रम है । यही हमारा धर्म है | यही हमारा कर्तव्य पथ है । इससे आगे हम कुछ नहीं जानते ।
"राजन् ! मेरी उदर-ज्वाला मुझे अत्यन्त व्यथित कर रही है । मेरा शिकार मुझे
दीजिए । "
राजा - "बाज ! उदर की ज्वाला को शान्त करने के और भी उपाय हैं । उसके लिए किसी के प्राण लूटना, किसी का जीवन उजाड़ना न उचित ही है और न आवश्यक ही ।" बाज—“राजन् ! मैं भूख से बेचैन हूँ । मुझे कई दिन बाद यह शिकार मिला है, हम जन्मजात मांसभोजी हैं। मांस हमारा नित्य का भोजन है । मेरी क्षुधा शान्ति में आप बाधक न
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