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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : धट जातक ५६१ लगाई। बलदेव ने ज्योंही कुश्ती के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, यक्ष ने उसे पकड़ लिया और वह बलदेव को मूली की तरह खा गया। वासुदेव का जरा शिकारी के बाण से शरीरान्त
वासुदेव ने देखा ---बलदेव मारा जा चुका है, तो वह अपनी बहिन और पुरोहित को साथ लिए वहाँ से चल पड़ा। सारी रात चला। प्रातः काल हुआ । सूरज उगा। वे एक सीमावर्ती गांव में पहुँचे। वासुदेव ने बहिन और पुरोहित को कहा-"तुम गाँव में जाओ, भोजन पकाकर लाओ, मैं यहाँ हूँ । बहिन अञ्जनदेवी और पुरोहित गाँव की ओर चल पड़े। वासुदेव स्वयं एक पेड़ के नीचे झुरमुट की आड़ में सो गया। इतने में जरा नामक शिकारी उधर आ निकला । उसने वृक्ष को हिलता देखा तो कल्पना की, शायद वहाँ सूअर हो। उसने बाण छोड़ा। बाण वासुदेव के पैर में लगा। पैर घायल हो गया। वासुदेव के मुंह से निकला-- "मुझे किसने घायल किया।" मनुष्य की बोली सुनकर वह शिकारी डर कर भागने लगा। वासदेव ने बाण को अपने पर से निकाला। वह उठा और शिकारी को पकारा-"डरो नहीं, यहाँ आओ।" वह आया। वासुदेव ने उससे पूछा - "तुम्हारा नाम क्या है ?" शिकारी बोला-'मेरा नाम जरा है।" राजा को स्मरण हुआ-पुरावर्ती पण्डितों ने बताया था कि जरा द्वारा बाण-विद्ध होने से मेरी मृत्यु होगी। आज मेरी मृत्यु निश्चित है । यह सोचकर उससे कहा-"घबराओ नहीं, आओ, मेरे घाव पर पट्टी बाँध दो।" जरा ने घाव पर पट्टी बाँधी। वासुदेव ने उसे वहाँ से विदा किया। अत्यधिक वेदना बढ़ी। अञ्जन देवी और पुरोहित भोजन लाये । असह्य पीड़ा के कारण वासुदेव द्वारा भोजन खाया नहीं जा सका। यह देखकर वे बहुत दुःखित हुए। वासुदेव ने उन्हें पास बुलाया और कहा-"आज मेरी मृत्यु हो जायेगी। तुम कोमल प्रकृति के हो, कोई दूसरा कार्य कर जीवन-निर्वाह कर सकोगे? एक मन्त्र सिखाता हूँ, जीवन में काम आयेगा, सीख लो।" यों कह कर उसने उन्हें एक मन्त्र सिखाया तथा वहीं प्राण छोड़ दिये। इस प्रकार एक अजन देवी को छोड़कर वासुदेव-वंश के सभी व्यक्ति काल-कवलित हो गये। शास्ता द्वारा धर्म-देशना
शास्ता ने इस प्रकार धर्म-देशना दी और कहा-"उपासक ! पुराने पण्डितों से ज्ञान की बात सुनकर शोकान्वित राजा ने पुत्र-शोक त्याग दिया।" ऐसा आख्यात कर शास्ता ने आर्य-सत्यों का प्रकाशन किया। उपासक अनुगृहीत हुआ, सत्यापन्न हुआ, स्रोतापत्ति-फल में संप्रतिष्ठ हुआ।
शास्ता ने कहा-"उस समय आनन्द रोहिणेय्य था, सारिपुत्त वासुदेव था, लोकपरिषद् बुद्ध-परिषद् थी और घट पण्डित तो मैं स्वयं ही था।
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