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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग--वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५५६ न किसी मन्त्र-बल द्वारा, न किसी जड़ी-बूटी द्वारा, न किसी औषधि द्वारा और न धन द्वारा ही वापस लौटा सकते हो।
राजा वासुदेव ने यह ध्यान-पूर्वक सुना और कहा- "भाई ! जो तुमने कहा, वह सब सत्य है। मेरा शोक मिटाने के लिए ही यह सब तुम्हारा प्रयत्न है।"
उसने आगे कहा-"घत-सिक्त, जाज्वल्यमान अग्नि जैसे जल डाल दिये जाने से शान्त हो जाती है, उसी प्रकार तुम्हारे वचनों से मेरा दुःख-मेरी शोकाग्नि निर्वपित हो गई है-शान्त हो गई है। जैसे किसी का हृदय-निश्रित--हृदय में गड़ा हुआ
दिय-निश्रित--हदय में गडा हआ काँटा निकाल दिया जाए, दूर कर-दिया जाए, उसी प्रकार मेरा पुत्र-शोक, जिससे मैं व्यथित एवं पीड़ित था, दूर हो गया है।
"भाई ! तुम्हारी बात सुनकर मेरे विषाद का काँटा निकल गया है. मेरा शोक मिट गया है, मैं अविकृत-स्थिर हो गया हूँ।"२
"जिसके घट पण्डित जैसे अमात्य हों-परामर्शक हों, उसका शोक दूर हो, यह उचित ही है।'३
जो सप्रज्ञ -प्रज्ञाशील होते हैं, अनुकम्पक-अनुज्ञाम्पाशील, करुणाशील होते हैं वे घट पडित की ज्यों; जिसने अपने बड़े भाई को शोक-विमुक्त किया, शोक में डूबे हुए को शोक से निकाल देते हैं।"४
कृष्ण हूँ पायन की हत्या
घटकुमार द्वारा सत्प्रेरित वासुदेव इस प्रकार शोक रहित हो गया। राज्य करता रहा । बहुत समय व्यतीत हो गया। दशों भाइयों के पुत्रों- राजकुमारों के मन में एक कुतूहल जागा-कहा जाता है, कृष्ण द्वैपायन दिव्यचक्षु प्राप्त है। हम उसकी परीक्षा करें। उन्होंने एक युवा राजकुमार को स्त्री के वेष में सजाया। उसका रूप-रंग, आकार-प्रकार
१. यं न लब्भा मनुस्सेन, अमनूस्सेन वा पुनो।
जातो मे मा मरी पुत्तो, कुतो लब्भा अलब्भियं ।।६।। न मन्ता मूल भेसज्जा, ओसधेहि धनेन वा। सबका आनयितुं कण्ह ! यं पेत अनुसोचसि ।।१०।। २. आदित्तं वत म सन्तं, घटसित्त व पावकं । वारिना विय ओसिञ्चि, सब्बं निब्बापये दरं ॥ अब्बहि वत मं सल्लं, यमासि हृदय-निस्सितं । यो मे सोक परेतस्स, पुत्तसोकं आनुदि ॥ सोहं अब्बूलहसल्लो स्मि, वीतसोको अनाविलो।
न सोचामि न रोदामि, तव सुत्वान माणव ।। ३. यस्स एतादिसा अस्सु, अमच्चा पुरिस-पण्डिता ।
यथा निज्झापये अञ्ज, धतो पुरिस-पण्डितो॥११॥ ४. एवं करोन्ति सप्पा , ये होन्ति अनुकम्पका। विनिवत्तयन्ति सोकम्हा, घटो जेठ्ठ व भातरं ।।
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