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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ वासुदेव के यों कहने पर भी घट पंडित बार-बार उसी तरह कहता गया । वासुदेव ने उसे पुन: कहा - " मैं तुम्हें सोने का, रत्नों का, लोहे का, चाँदी का, स्फटिक का, मूंगे का जैसा तुम चाहो, शश निर्मित करवा दूंगा । वन में विचरण करने वाले और भी शश हैं, वे मैं तुम्हें मंगवादूंगा । तुम कैसा शश चाहते हो ? "" ५५८ वासुदेव की बात सुनकर घट पण्डित ने कहा - "जो शश पृथ्वी पर आश्रित हैंइस भू-मण्डल पर विद्यमान हैं, मैं उन्हें नहीं चाहता । केशव ! चन्द्रमा में जो शश है, मैं उसे चाहता हूँ, मुझे वह उतार दो ।"२ वासुदेव बोला – “भाई से तुम चन्द्रमा से उतरवा कर शश लेना चाहते हो, यह अप्राति के लिए प्रार्थना है - जो प्राप्त होने योग्य नहीं है, जो प्राप्त होना असंभव है, उसे प्राप्त करने की यह तुम्हारी चाह है । इसमें उलझे रहकर तुम अपने प्यारे प्राणों से हाथ धो बैठोगे | 3 घट पण्डित ने वासुदेव का कथन सुना, अपने को सुस्थिरवत् प्रदर्शित किया और कहा - "भाई कृष्ण ! तुम इतना सब जानते हो, मुझे कहते हो, चन्द्रमा से शश चाहना अप्रार्थित प्रार्थना है- -न प्राप्त हो सकने योग्य को पाने की अभिलाषा है। मुझे तो ऐसा उपदेश देते हो, जरा सोचो, तुम अपने मृत पुत्र के लिए, जिसे मरे कई दिन हो गये, आज भी चिन्ता करते हो, शोक करते हो, क्यों ? ४ बाजार के बीच खड़ा हुआ घट पण्डित बोला - " मैं तो ऐसी वस्तु चाहता हूँ, जा दृष्टिगम्य तो है, दिखाई तो देती है, किन्तु, तुम तो ऐसी वस्तु चाह रहे हो, जो दृष्टिगोचर ही नहीं होती । " घट पण्डित ने आगे कहा- "मेरा उत्पन्न हुआ पुत्र कभी मरण को प्राप्त न हो, यह बात अलभ्य है- -अप्राप्य है, कभी प्राप्त न हो सकने योग्य है । न यह मनुष्यों को प्राप्त है और न देवताओं को ही । यह अलभ्य वस्तु फिर तुम्हें प्राप्त कैसे होगी ! " जिस प्रेत - गये हुए, मरे हुए पुत्र के लिए शोक करते हो, चिन्ता करते हो, उसे १. सोवण्णमयं मणीमयं, लोहमयं अथ रूपियामयं । सङ्खसिलापवाळमयं कारयिस्सामि ते समं ॥४॥ सन्ति अत्रे पि ससका, अरत्रे वन गोचरा । आनस्सामि, कीदिसं ससमिच्छसि ||५|| २. नवाहं एवं इच्छामि, ये ससा पढवि गता । चन्दतो सममिच्छामि तं मे ओहर केसव ॥ ६ ॥ ३. सो नूनं मधुरं जाति, जीवितं विजहिस्ससि । अपत्यं यो पत्थयसि, चन्दतो ससमिच्छसि ॥७॥ ४. एवं चे कण्ह ! जानासि यदञ्ञ अनुसाससि । कस्मा पुरे मतं पुत्तं, अज्जापि अनुसोचसि ॥ ८ ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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