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तत्त्व : आचारः कथानुयोग] कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५५७ दश भागों में विभक्त किया। वे विभाजन करते समय अपनी बहिन अञ्जन देवी को भूल गये। याद आते ही उन्होंने कहा--"अपने राज्य के ग्यारह भाग कर लें।" इस पर कहा-'मेरे हिस्से का राज्य आप बहिन को दे दें। मैं व्यापार कर लोक-यात्रा-निर्वाह करूंगा। मैं केवल इतना चाहता हूँ, आप मुझ से अपने-अपने जनपद में राज्य-शुल्क न लें।" उन्होंने अंकुर का अनुरोध स्वीकार किया। उसका भाग बहिन अञ्जन देवी को दे दिया। वे नवों भाई- नौ राजा अपनी बहिन के साथ द्वारवती में रहने लगे। अंकुर व्यापार में लग गया।
समय व्यतीत होता गया। उनके सन्तान हुईं। परिवार-वृद्धि हुई। उनके माता-पिता काल-धर्म को प्राप्त हो गए। वासुदेव के पुत्र की मृत्यु : अत्यधिक शोक
तदनन् र एक दुःखद घटना घटी-महाराज वासुदेव के पुत्र की मृत्यु हो गई, जो उन्हें बहुत प्रिय था । राजा शोक से व्याकुल हो गया। सब काम-काज छोड़ दिये । पलंग की बांही पकड़ ली और रोने लगा। शोक का क्रम चालू रहा। राजा बड़ा अशान्त हो गया। उसे मृत-पुत्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता था। उसी को याद कर अनवरत रोना, विलखना, विलाप करना यही उसका काम रह गया था । घट पंडित द्वारा युक्ति-पूर्वक शोक-निवारण
छोटे भाई घट पंडित ने विचार किया—भाई अत्यन्त शोकान्वित है। इस समय दूसरा कोई भी उसका शोक मिटा नहीं सकता। मुझे भी बड़ी चतुराई से, कुशलता से उसका शोक दूर करना होगा। यों सोचकर घट पंडित ने विक्षिप्त का-सा हुलिया बनाया। 'मुझे शश दो, मुझे शश दो' बार-बार यही बोलता हुआ वह आकाश की ओर मुंह किये नगर में फिरने लगा, भटकने लगा । घट पंडित विक्षिप्त हो गया है, यह सुनकर नगर के सभी लोग बहुत उद्विग्न हुए, दु:खित हुए।
उस समय रोहिणेय्य नामक अमात्य महाराज वासुदेव के पास आया और राजा से कहा-."हे कृष्ण ! उठो ! क्या सो रहे हो ? तुम्हारे सोने का क्या अर्थ है, क्या हेतु है ? भाई घट, जो तुम्हारे कलेजे का टुकड़ा है, तुम्हें अपने दाहिने नेत्र के सदृश प्रिय है, बादी में आ गया है --पागल जैसा हो गया है। केशव ! वह अज्ञानी की ज्यों बकता है।'
रोहिणेय्य का कथन सुनकर केशव भाई के शोक से बड़ा पीडित हुआ और तुरन्त उठा।
वासुदेव शीघ्र अपने महल से नीचे उतरा, घट पण्डित के पास गया, उसे अपने दोनों हाथों से भलीभाँति पकड़ा। उससे कहा--"क्या उन्मत्त की तरह-विक्षिप्त की ज्यों 'शश-शश' बकते हुए द्वारवती में भटक रहे हो? तुम्हारा शश किसने हर लिया?"3 १. उट्ठ हि कण्ह किं सेसि, को अत्थो सुपिनेन ते ।
योपि तायं सको भाता, हृदयं चक्खं च दक्खिणं । तस्य वाता वलीयन्ति, घतो जप्पति केसव ॥१॥ २. तस्सं तं वचनं सुत्वा, रोहिणेय्यस्स केस वो।
तरमानरूपो बुट्ठासि, भातुसोकेन अट्टितो ॥२॥ ३. किन्नु, उम्मत्तरूपो व, केवलं द्वारकं इमं ।
ससो ससो ति लपसि, को नु ते ससं आहरि ॥३॥
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