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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५५१ उसका बच्चा उसके साथ था। उसने मुनि बलभद्र का जब अद्भुत रूप देखा, वह विस्मित हो गई, अपना भान भूल गई। वह इतनी मोहाविष्ट हुई कि कूप से पानी निकालने हेतु रस्सी घड़े के गले में, बाँधने के बजाय उसने बच्चे के गले में बाँध दी । मुनि बलभद्र ने जब यह देखा तो वे चौंक गये। उन्होंने उस महिला को उस अनर्थ से अवगत कराया। वे वापस वन की ओर चल पड़े । जब उस दृश्य पर उन्होंने गहन चिन्तन किया तो उन्होंने अपने रूप की भर्त्सना की, कहने लगे-"यह रूप वस्तुतः बड़ा निकृष्ट है, इतने भीषण अनर्थ का यह हेतु हो सकता है।" वह वन, जिसमें मुनि बलभद्र आवास कर रहे थे, बड़ा बियाबान था। उधर से गुजरने वाले लोग जब ऐसे परम तेजस्वी साधक को देखते तो उन्हें आश्चर्य तो होता ही, साथ ही साथ अनेक प्रश्न उनके मन में उत्पन्न होते - यह साधक कोई मन्त्र-तन्त्र साध रहा है, देवी-देवता की आराधना कर रहा है अथवा कोई सिद्धि प्राप्त करने का उद्यम कर रहा है ? इत्यादि । जिज्ञासा सन्देह के रूप में परिणत हो गई । एक लकड़हारे ने, जो वन से लकड़ियाँ काटकर ले जाता था, अपने राजा को यह समाचार सुनाया। राजा संशयापन्न हुआ। उसने अपनी चतुरंगिणी सेना सुसज्जित की। वह अपनी सेना साथ लिये एक नि:स्पृह, निराकांक्ष मुनि का वध करने चल पड़ा। सिद्धार्थ देव को अवधि-ज्ञान द्वारा यह ज्ञात हुआ। उसने सिंह-सेना की विक्रिया की। सिंहों की विशाल सेना को देखते ही राजा भय से कांप गया। उसने मुनि के चरण पकड़ लिये। अपने अपराध के लिए वह उनसे बार-बार क्षमा-याचना करने लगा। उसकी दीनता एवं कातरता-पूर्ण याचना देखकर देव ने अपनी माया का संवरण कर लिया। राजा अपने नगर को लौट गया। मुनि वलभद्र के परमोत्कृष्ट अहिंसानुप्रमाणित जीवन से वन का सारा वातावरण पवित्र बन गया। वन के पशु-पक्षी अपना पारस्परिक शत्रु-भाव विस्मृत कर मुनि के आसपास विचरण करते । एक हरिण को जाति-स्मरण-ज्ञान हो गया । अपने पूर्ववर्ती भवों को ज्ञात कर वह मुनि का भक्त बन गया । वह वन में यत्र-तत्र घूमता, जहाँ भी दोष-वजित, शुद्ध आहार प्राप्त होने की आशा होती, संभावना होती, वह मुनि को वहाँ ले जाता । मुनि को प्रायः आहार प्राप्त हो जाता। एक दिन की बात है, मुनि उस हरिण के संकेत के अनुसार एक रथकार के यहाँ एक मास की तपस्या के पारणे के निमित्त भिक्षार्थ गये। रथकार मुनि को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने भक्ति-नत होकर मुनि के चरणों का स्पर्श किया। उदार, प्रशस्त भावपूर्वक उसने मुनि को भिक्षा दी। हरिण मन-ही-मन विचारने लगा-यह रथकार वस्तुतः बड़ा सौभाग्यशाली है, जो ऐसे परम त्यागी, तपस्वी मुनि को श्रद्धापूर्वक, आदरपूर्वक दान दे रहा है । मुनि ने भी अनुभव किया-यह उपासक उत्तम बुद्धि-युक्त एवं उज्ज्वल परिणामयुक्त है। एक वृक्ष के नीचे तीनों इस प्रकार प्रशस्त चिन्तन में निरत थे। वृक्ष की एक मोटी डाली अकस्मात् टूटकर गिर पड़ी। वे तीनों उसके नीचे दब गये। उन्होंने शुभ ध्यान-पूर्वक देह-त्याग किया। ब्रह्म देवलोक के पद्मोत्तर नामक विमान में देव-रूप में आविर्भूत हुए।' १. आधार -अन्तक दृशांग सूत्र, उत्तराध्ययन टीका, वसुदेव हिंडी, चउप्पनमहापुरिस चरियं, नेमिनाहचरियं, भव भावना, कण्हचरियं हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण, त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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