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तत्त्व
'आगम और त्रिपिटक' ग्रन्थ-माला का यह तीसरा खण्ड आरम्भ हो रहा है। इसका समीकरण नाम 'तत्त्व : आचार : कथानुयोग' खण्ड है। नामक्रम से सम्बन्धित विषयों पर समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक वर्गीकृत विवेचन आएगा, जो कि आश्चार्यमूलक समानता लिए हुए होगा।
__ प्रस्तुत तत्त्व-प्रकरण में जैन एवं बौद्ध-साहित्य में प्रयुक्त समान शास्त्रीय गाथाएं, समान भाव-भाषा-शैली बहुत ही प्रेरक एवं अनुशीलनीय है। कौन-सी गाथाएं भगवान् महावीर की हैं, तथा कौन-सी भगवान् बुद्ध की, यह तो उद्धरणगत ग्रन्थों के नाम से स्वतः विज्ञेय हैं ही।
जरा-मरण की अनिवार्यता
जो जन्मा है, वह बचपन और यौवन के बाद बूढ़ा होगा। फिर अपने आयुष्य के अनुरूप मृत्यु प्राप्त करेगा । वृद्धत्व एवं मृत्यु सबके लिए दुनिवार है। इतना तो है, यदि कोई बाल्यावस्था या युवावस्था में ही मृत्यु प्राप्त कर ले, तो उसे वृद्धावस्था नहीं देखनी पड़ती, किन्तु, परिपक्व आयु का भोग करने वाले को तो वह आती ही है । मृत्यु सबको आती है, चाहे शिशु हो, किशोर हो, तरुण हो या वृद्ध हो।
जैन तथा बौद्ध वाङ्मय में धार्मिक प्रेरणा के सन्दर्भ में जरा-मरण के दुनिवार, दुर्लघ्य रूप का अनेक स्थानों पर विवेचन हुआ है।
जीवन का धागा टूट जाए तो वह कभी संधता नहीं। वस्तुतः जीवन नश्वर है। वृद्धावस्था से कोई नहीं बचा सकता है । वह अनिवार्य है। जब ऐसी स्थिति है, तो जरा सोचो-जो हिंसा तथा प्रमाद में अभिरत हैं, पाप-कर्मों से अविरत हैं, वे किसकी शरण लें? उनके लिए कहीं भी शरण नहीं है । वे इस छोटे से नाशवान् जीवन में क्यों ऐसा करें।'
__ जीवन मिटता जा रहा है। आयु बहुत थोड़ी है । वृद्धावस्था से कहीं त्राण नहीं हैबुढ़ापे से बचने का कोई उपाय नहीं है । मनुष्य को चाहिए, वह मृत्यु की भयावहता को
१. असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु णत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, किण्णु विहिंसा अजयां महिंति ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र ४०१
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