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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
वाणी कभी अन्यथा नहीं हो सकती। तुमने अपनी ओर से इस घटना को टालने का सोचा, घोर दुःखमय वनवास स्वीकार किया, किन्तु, देखते हो, सब निरर्थक सिद्ध हुआ। अन्त में घटित वही हुआ, जो होना था।"
शोकाकुल, व्यथा-विह्वल जराकुमार कहने लगा- "मुझे धिक्कार है। मैं अपने पूजनीय ज्येष्ठ बन्धु के प्राणान्त का कारण बन रहा हूँ।"
श्रीकृष्ण ने विद्यमान गंभीर स्थिति देखते हुए कहा- "जराकुमार ! तुम विषाद मत करो। इस समय यादव-वंश में एकमात्र तुम ही बचे हो। यदि बलभद्र आ गये तो वे तुम्हें मारे बिना नहीं छोड़ेंगे।"
___जराकुमार की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। उसने कहा-'अब मेरा मर जाना ही श्रेयस्कर है । अब मुझे मरने की क्या चिन्ता है ? क्या बचा है, मेरे जीवन में ? क्या करूंगा, मैं इसका भार ढोकर।" ।
श्रीकृष्ण-"जराकुमार! इतने भावक मत बनो। स्थिति की गम्भीरता को आंको। तम्हें जीवित रहना ही होगा। यादव-वंश के अस्तित्व-रक्षण तथा परंपरा-प्रवर्तन के लिए यह आवश्यक है ; क्योंकि तुम्हारे मरते ही यह सब समाप्त हो जायेगा । मैं चाहता हूँ, ऐसा न हो।"
जराकुमार-"तात ! यह कलंकित मुंह लिये मैं जीवित रहना नहीं चाहता।"
श्रीकृष्ण-"मेरी चाह है, तुम जीवित रहो; इसलिए मेरा कथन स्वीकार करो। यह कौस्तुभ मणि लो । पाण्डवों के यहाँ जाओ । द्वारिका का दहन, यादवों का विनाश इत्यादि समग्र घटनाओं से उन्हें अवगत करा दो। मेरा यह सन्देश भी उन्हें कहो कि मैंने उन्हें निष्कासित किया था, जिसका मुझे पश्चात्ताप है । मैं क्षमा मांगता हूँ।"
कृष्ण का प्राणान्त
श्रीकृष्ण ने जराकुमार को कौस्तुभ मणि दी और उसे पाण्डव-मथुरा जाने हेतु आज्ञापित किया। भारी मन से बड़े भाई की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए जराकुमार ने कौस्तुभ मणि स्वीकार की, श्रीकृष्ण के पैर में गड़ा बाण निकाला और अत्यन्त खिन्नता लिये वहाँ से प्रस्थान किया।
पैर से बाण निकलते ही कृष्ण के असीम पीड़ा हुई । उन्होंने पूर्व की ओर अपना मुंह किया। अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-पंच-परमेष्ठी का स्मरण किया । कुछ समय शुभ भावों का अनुचिन्तन किया। इतने में गश आया, उनके प्राण-पखेरू उड़ गये।
लह वर्ष पर्यन्त कौमार्यावस्था में रहै, छप्पन वर्ष माण्डलिक अवस्था में रहे तथा नौ सौ अठ्ठाइस वर्ष अर्धचक्रेश्वर के के रूप में रहे। उनका सम्पूर्ण आयुष्य एक सहस्र वर्ष का था।
बलभद्र शोक में पागल
कुछ ही समय में बलभद्र जल लेकर वापस आये। उन्होंने कृष्ण के शरीर को निश्चल, निश्चेष्ट और निष्क्रिय देखा। एक दो दफा आवाज दी, पर, उत्तर कौन दे । बलभद्र को कृष्ण के प्रति बड़ा ममत्व था। मोहावेश में वे कल्पना करने लगे, कृष्ण उनसे रुष्ट हो गये हैं । वे शोक-विह्वल स्वर में कहने लगे- "तात ! जल लाने में थोड़ी ही तो देर हुई, तुम रुष्ट हो गये ? उठो, यों रुष्ट नहीं होना चाहिए।"
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