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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
कथानुयोग – वासुदेव कृष्ण : घट जातक
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अच्छदन्त ने कृष्ण-बलराम को सविनय प्रणाम किया और वह अपने राज-भवन में
चला गया ।
बलभद्र और कृष्ण दोनों भाई नगर से बाहर आये । उद्यान में बैठे, भोजन किया । अपने दक्षिणाभिमुख यात्रा क्रम में अग्रसर हुए । चलते-चलते वे कौशाम्बी वन में पहुँचे ।
कृष्ण को प्यास : बलराम का जल हेतु गमन
तेज गर्मी थी । रास्ते की थकावट थी । प्यास से श्रीकृष्ण का गला सूखने लगा । छोटे भाई को व्यास से व्याकुल देखकर बलभद्र ने कहा - "भाई ! तुम इस पेड़ के नीचे आराम करो। मैं जल लाने जा रहा हूँ । शीघ्र आऊंगा । "
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बलभद्र यह कहकर पानी लाने गये । कृष्ण पेड़ के नीचे लेट गये । उन्होने विश्राम की में अपना एक पैर दूसरे पर रखा । परिश्रान्त तो थे ही, उन्हें नींद आ गई ।
मुद्रा
जराकुमार द्वारा शर-प्रहार
में
संयोग ऐसा बना, जराकुमार, जो अपने शरीर पर बाघ का चमड़ा लपेटे था, हाथ धनुष-बाण 'लिये था, उघर आया । भूख मिटाने के लिए जंगली पशुओं का आखेट करना ही उसके जीवन निर्वाह का क्रम था । श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे । जराकुमार की दृष्टि पीताम्बर पर पड़ी । उसे भ्रान्ति हुई— कोई हरिण बैठा है। उसने धनुष पर एक तीक्ष्ण बाण चढ़ाया निशाना साधा और बाण छोड़ दिया। बाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा । उनकी नींद टूट गई । वे उठे । ऊँची आवाज में कहा - "यह बाण - प्रहार किसने किया है ? अपना नाम एवं गोत्र बताये बिना ऐसा करना न्याय संगत नहीं होता । बाण मारने वाले ! तुम अपना परिचय बतलाओ ।"
भवितव्यता की विडम्बना
जराकुमार वृक्ष की आड़ में खड़ा था । वह बोला- “राहगीर ! मैं दशवें दशार्ह वसुदेव और जरादेवी का अंगज हूँ | मेरा नाम जराकुमार है । श्रीकृष्ण तथा बलराम मेरे बड़े भाई हैं। मैं बारह वर्ष से इस वन में निवास करता आ रहा हूँ । भगवान् अरिष्टनेमि की भविष्यवाणी सुनकर कि मेरे द्वारा मेरे अग्रज श्रीकृष्ण का मरण होगा, मैं बहुत दु:खित हुआ, व्यथित हुआ । किसी भी तरह वह स्थिति टाली जा सके, इस दृष्टिकोण से मैं यहाँ रह रहा हूँ । अब तक इस वन में मुझे कोई पुरुष दिखाई नहीं दिया। मैंने मृग समझ कर तुम्हें बाण मारा। तुम कौन हो ?"
यह परिचय सुनकर वासुदेव कृष्ण भवितव्यता की विडम्बना पर मुसकराये। शान्त, सुस्थिर आवाज में जराकुमार को अपने निकट आने के लिए कहा। जराकुमार आया । अपने अग्रज श्रीकृष्ण को देखकर वह पाषाण की ज्यों जड़ हो गया। काटो तो खून नहीं । वह फूट-फूट कर रोने लगा । जिस घटना को टालने के लिए वह बारह वर्ष पर्यन्त भयानक अटवी में मारा-मारा फिरता रहा, अन्ततः उसके हाथ से वही दुर्घटना घटित हो गई। उसके शोक का पार नहीं था ।
श्रीकृष्ण ने किसी तरह उसे शान्त किया । द्वारिका का दहन इत्यादि समग्र घटनाएँ उसे बताते हुए कहा - " तात ! जो होनहार रहता है । वह बड़ा प्रबल और दुर्निवार होता है । उसे कोई टाल
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यादव - कुल का विनाश होता है वह होकर ही नहीं सकता । सर्वज्ञ की
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