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आगम और त्रिपिटक: एक
[खण्ड
:३
नामक नगर के निकट पहुंचे। श्री कृष्ण को उस समय बड़ी भूख लगी। उन्होंने बलभद्र से कहा—'तात! आप नगर में जाएं, भोजन ले आएं।"
बलभद्र ने कहा- मैं जा रहा हूं। तुम पीछे से सावधान रहना।"
श्रीकृष्ण-"आप अपना भी ध्यान रखिए।" बलभद्र- "वैसे कोई चिन्ता की बात नहीं है। मैं अकेला ही काफी हूँ, पर, यदि किसी विपत्ति में फंस जाऊँ तो मैं सिंहनाद करूंगा। तुम उसे सुनकर शीघ्र मेरे पास चले आना।"
श्रीकृष्ण को यों ज्ञापित कर बलभद्र वहाँ से चले, हस्तिकल्प नगर में प्रवेश किया।
अच्छवन्त का पराभव
धृतराष्ट्र का पुत्र अच्छदन्त हस्तिकल्प नगर का राजा था। कृष्ण और जरासन्ध के युद्ध में कौरव जरासन्ध के पक्ष में थे; अतः उसके मन में श्रीकृष्ण और बलराम के प्रति शत्रुत्व और वैमनस्य था।
नगरवासी बलभद्र की अनुपम रूप-सम्पदा देख विस्मय-विमुग्ध हो गये । वे कल्पना करने लगे-ये स्वयं बलभद्र हैं या उन जैसा कोई और पुरुष है । फिर उनका ध्यान इस ओर गया कि द्वारिका तो जलकर भस्म हो गई है । वहां से बचकर निकले हुए ये बलभद्र ही होने चाहिएं।
बलभद्र ने अपने नाम से अकित अंगूठी हलवाई को दी। उसके बदले में भोज्य-पदार्थ लिये । हलवाई ने अंगूठी देखी। उसके मन में कुछ संशय हुआ। उसने अंगूठी राजकर्मचारियों को दी। राजकर्मचारी राजा के पास ले गये। उन्होंने राजा से कहा-"राजन् ! बलभद्र जैसा एक पुरुष नगर में आया है। उसने हलवाई को यह अंगूठी देकर भोज्य-सामग्री खरीदी है। हम नहीं जानते, अंगूठी पर अंकित नाम के अनुनार वह स्वयं बलभद्र है या कोई तस्कर है, जिसने अंगूठी चुरा ली हो । अब जैसी आप आज्ञा करें।"
राजा अच्छदन्त ने अंगूठी को उलट-पलट कर देखा, परीक्षण किया। उसके आधार पर वह इस निश्चय पर पहुँचा कि वह बलभद्र ही है। यह प्रतिशोध लेने का उपयुक्त अवसर है। उसने अपने नगर का दरवाजा बन्द करवा दिया और वह अपनी सेना के साथ बलभद्र को पराभूत करने, निहत करने पहुँच गया । सैनिकों ने बलभद्र को चारों ओर से घेर लिया। बलभद्र ने भोज्य-सामग्री एक तरफ रखी। सिंहनाद किया और बड़ी वीरता के साथ वे सेना पर टूट पड़े।
बलभद्र का सिंहनाद कृष्ण को सुनाई पड़ा। वे शीघ्र ही दौड़े आये। नगर का द्वार बन्द था। उन्होंने पैर के आघात द्वारा उसे तोड़ डाला । नगर के भीतर प्रविष्ट हुए। दोनों भाइयों ने शत्र-सेना को रौंद डाला । अनेकानेक सैनिक उनके हाथों धराशायी हुए। अच्छदन्त का दर्प मिट्टी में मिल गया।
पराभूत होकर अच्छदन्त श्रीकृष्ण-बलराम के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा मांगने लगा।
श्रीकृष्ण ने कहा-"हमारी भुजाओं के बल को जानते हुए भी तुमने यह हिम्मत की, तुम्हारी कितनी बड़ी मूर्खता है । यद्यपि समय तो हमारे प्रतिकूल है, किन्तु, हमारा बल आज भी कहीं गया नहीं है, यथावत् विद्यमान है। खैर, हम तुम्हारा अपराध क्षमा करते हैं । सुख-पूर्वक अपना राज्य करो।"
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