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तत्त्व : आचार:
कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक
यादव-वंश जिन्दा है, ऐसा हम मानते हैं। तुमने हमें बचाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु, क्या किया जाए, ऐसा ही योग है, कोई उपाय नहीं है, हमारी मृत्यु इसी विधि से है । अब हम आमरण अनशन स्वीकार करते हैं।"
यह कहकर उन तीनों ने भगवान् अरिष्टनेमि की शरण ली, चतुर्विध आहार का परित्याग किया, आमरण अनशन स्वीकार किया, महामंत्र नवकार जपने लगे । आकाश से भीषण अंगारे बरस रहे थे। तीनों का प्राणान्त हो गया । वे स्वर्गवासी हुए।
सर्वनाश
बड़ी विकराल स्थिति थी। त्रिखण्डाधिपति वासुदेव कृष्ण तथा बलराम के देखतेदेखते राजधानी, परिजन, दिव्य शस्त्रास्त्र, वस्त्र, आभूषण, धन, धान्य सब जलकर खाक हो गये। भयावह अग्नि की लपटों से द्वारिका घिरी थी।
श्रीकृष्ण और बलराम निराश थे, विवश थे। वे नगर के बहिःस्थित जीर्ण उद्यान में खड़े थे। इस करुणाजनक दुरवस्था को निहार रहे थे।
श्रीकृष्ण अत्यन्त दु:खपूर्ण स्वर में बोले-"तात ! मैं इस विनाश लीला को अब और नहीं देख सकता। कहीं अन्यत्र चलें।"
कुछ सोचकर वे पुनः बोले -"हम कहाँ जाएँ, बहुत से राजा हमारे विरोधी हो गये हैं।”
बलराम ने सुझाव दिया-"पांडवों का हमारे प्रति स्नेह तथा आदर है । हम उन्हीं के यहाँ चलें।"
कृष्ण के मन में संकोच था। वे बोले- 'मैंने पाण्डवों को भी निष्कासित कर दिया था। ऐसी स्थिति में क्या हमारा वहाँ चलना उपयुक्त होगा?"
बलराम- “ऐसी शंका मन से निकाल दो। पाण्डव हमारा सत्कार करेंगे।"
श्रीकृष्ण को बलराम का सुझाव उपयुक्त प्रतीत हुआ। दोनों भाई पाण्डव-मथुरा जाने का उद्देश्य लिये नैऋत्य-दक्षिण-पश्चिम दिग्भाग की ओर रवाना हुए।
जिस समय द्वारिका भीषण रूप में जल रही थी, बलराम का पूत्र कब्जावारक अपने प्रासाद की छत पर खडा था। वह जोर-जोर से कहता था- मैं भगवान अरिष्टनेमि का व्रती श्रावक हैं। भगवान के वचनानुसार मैं चरम-शरीरी हैं मेरा यह चरम-अन्तिम शरीर है। इसी भव में मैं मुक्ति प्राप्त करूँगा। तीर्थंकर की वाणी कभी अन्यथा नहीं होती। ये आग की लपटें मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं।
जृम्भक देव ने कुब्जावारक के शब्द सुने। वह वहाँ प्रकट हुआ। उसने कुब्जावारक को उठाया और उसे भगवान् अरिष्ट नेमि की शरण में पहुँचा दिया। कुब्जावारक ने भगवान के पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली।
छः मास तक द्वारिका जलती रही। सब कुछ भस्मसात् हो गया। फिर समुद्र में भयंकर तूफान आया, जिसकी चपेट में आकर वह नगरी जल-निमग्न हो गई। वहाँ समुद्र लहराने लगा। द्वारिका का वहाँ कोई नाम-निशान तक नहीं रहा। कभी जो द्वारिका समुद्र से निकली थी, वह अन्त में समुद्र में ही विलीन हो गई।
कृष्ण और बलराम पाण्डव-मथुरा की ओर
श्रीकृष्ण और बलभद्र बलराम पाण्डव-मथुरा की दिशा में चलते गये। वे हस्ति कल्प
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