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________________ ५४० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:३ की सुरक्षा एवं देखभाल के लिए एक अधिकारी नियुक्त किया। भेरी उसकी निगरानी में रहती। प्रति छः मास बाद वासुदेव कृष्ण भेरी बजाते, लोग सुनते ही रोग-मुक्त हो जाते। __अद्भुत प्रभावकारी वस्तुओं की प्रशस्ति स्वयं फैल जाती है। रोग-नाश के सन्दर्भ में भेरी का अपना अनुपम प्रभाव था। सर्वत्र उसका यश प्रसृत हो गया। भेरी-रक्षक का लोभ द्वारिका से बाहर का एक श्रेष्ठी दाह-ज्वर से पीड़ित था। अपना रोग मिटाने हेतु वह द्वारिका आया। लोगों ने उसे बताया कि कुछ ही समय पूर्व भेरी बज चुकी है । अब आपको छः मास तक भेरी-वादन की प्रतीक्षा करनी होगी। दाह-ज्वर बड़ी भयानक व्याधि है। उसमें शरीर अग्नि की ज्यों तपता रहता है। उसकी वेदना असह्य होती है । सेठ बड़ा व्याकुल था । विपुल धन का स्वामी था। इतनी प्रतीक्षा करना उसके वश की बात नहीं थी। उसने सोचा-धन के बल से अपना कार्य करवालूं । वह सीधा भेरी-रक्षक के पास पहुंचा। उसने अपनी स्थिति से उसे अवगत कराया । उसने भेरी का छोटा-सा टुकड़ा मांगा। भेरी-रक्षक पहले तो निषेध करता रहा, पर. जब सेठ ने उसे एक लाख सोने की मोहरें दी, भेरी से काट कर एक छोटा-सा टकड़ा उसने उस सेठ को दे दिया। उस रिक्त स्थान पर उतना ही बड़ा चन्दन का टुकड़ा लगा दिया। सेठ ने उस टुकड़े को घोटा और पीलिया। वह स्वस्थ हो गया। मेरी-रक्षक की लोभ-वृत्ति भभक उठी। धन बनाने का अच्छा उपाय उसके हाथ लग गया था। धनी रोगियों से वह धन ले लेकर भेरी के टुकड़े काट-काट कर देता जाता। रिक्त हुए स्थानों पर चन्दन के उतने ही बड़े टुकड़े लगाकर पूर्ति करता जाता । यह क्रम चलता गया। धीरे-धीरे परिणाम यह हुआ कि समन भेरी ही चन्दन की हो गई। ___छः महीने व्यतीत हुए । वासुदेव ने भेरी बजाने का उपक्रम किया। उससे खाल की-सी आवाज निकली। सभा-भवन भी उससे गंजित नहीं हुआ, सारी द्वारिका के गुंजित होने की तो बात ही कहाँ । वासुदेव ने ध्यान-पूर्वक भेरी की ओर देखा, झट सारी बात उनकी समझ में आ गई । लोभी, कर्तव्य-हीन भेरी-रक्षक को उन्होंने प्राण-दण्ड दिया। फिर तेले की तपस्या की, उसी देव को स्मरण किया। पूनः चामत्कारिक भेरी प्राप्त की। भगवान् अरिष्टनेमि का द्वारिका-आगमन कुछ समय व्यतीत हुआ। भगवान् अरिष्टनेमि द्वारिका पधारे। सहस्राम्रवन उद्यान में रुके । धर्म-देशना दी। वासुदेव कृष्ण ने भी अन्यान्य श्रोताओं के साथ उपदेश सुना। वे विचार करने लगे-जालि, मयालि, उवयालि आदि यादव-कुमार, जिन्होंने भरे यौवन में संयम स्वीकार किया, जो आत्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर हुए, धन्य हैं । एक मैं, है, जो काम-भोगों से विरत हो नहीं पाता। यों तो मैं अर्ध-चक्रेश्वर हूँ, विशाल-शक्ति-सम्पन्न हैं, किन्तु, जीवन का एक ऐसा पक्ष भी है, जिसमें मैं अतीव दुर्बल हूँ-मैं प्रव्रज्या नहीं ले सकता, त्याग-तितिक्षामय पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। भगवान् अरिष्टनेमि तो अन्तर्यामी थे। उन्होंने वासुदेव कृष्ण के मन की बात ताड़ ली। उन्होंने कहा- "सभी वासुदेव निदान-प्रसूत होते हैं ; अतः उन के लिए यह शक्य नहीं है कि वे संयम ग्रहण कर सकें।" Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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