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तत्त्व : आचार : कथानुयोग कथानुयोग- वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५३६ अनेक श्रमण-धर्म में दीक्षित हुए। वसुदेव के अतिरिक्त नौओं दशाह बन्धु भी प्रव्रजित हो गये। भगवान् अरिष्टनेमि को माता शिवादेवी, उनके सात भाई, कृष्ण के अनेक पुत्र, कंस की पुत्री एकनाशा के साथ बहुत-सी यादव-कन्याएँ, देवकी, रोहिणी तथा कनकवती के अतिरिक्त वसुदेव की मभी रानियाँ प्रवजित हो गईं। कनकवती गृहस्थ में रहती हुई मी उच्च साधना-रत रहो । वह ससार के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करते-करते अति उच्च, निर्मल, विशुद्ध परिणामों से अनुभावित होती गई। घाति कर्मों का नाश किया, केवलज्ञान अधिगत किया। देवताओं ने इस उपलक्ष्य में जब कैवल्य-महोत्सव आयोजित किया, लोग आश्चर्यचकित रह गये। कनकवती ने साध्वी-वेश स्वीकारा, भगवान् अरिष्टनेमि के समवसरण में गई। एक मास का अनशन कर, समाधि-मरण प्राप्त कर मुक्त हुई।
___ एक दिन का प्रसंग है, इन्द्र की सभा में वासुदेव कृष्ण के सम्बन्ध में चर्चा चल पड़ी। इन्द्र ने कहा- "वासुदेव कृष्ण का व्यक्तित्व बड़ा प्रशस्त है। वे किसी के अवगुणों की ओर दष्टि नहीं डालते, उसके गुण ही देखते हैं। वे कभी अधम कोटि का युद्ध नहीं लड़ते । वे गुणग्राही हैं, धर्म-योद्धा हैं। सभा में विद्यमान देवों में से एक को श्रीकृष्ण की यह प्रशंसा नहीं रुची । वह कृष्ण की परीक्षा करने द्वारिका आया। उसने एक रुग्ण कुतिया का रूप बनाया और वन में जाकर बैठ गया । कुतिया का शरीर बुरी तरह सड़ा-गला था, दुर्गन्धित था। उस समय श्रीकृष्ण अपने रथ में बैठकर वन में घूमने जा रहे थे। उन्होंने कुतिया को देखा, वे अपने सारथि से बोले-"सारथे ! देखो, इस कुतिया के दाँत कितने उज्ज्वल एवं सुन्दर हैं, मोतियों की ज्यों चमक रहे हैं।"
श्रीकृष्ण अपने पथ पर अग्रसर हुए । देव ने कुतिया का रूप त्याग दिया । उसने एक तस्कर का रूप बनाया। वह कृष्ण का घोड़ा लेकर चलता बना। सेना उसके पीछे दौडी। उसे पकड़ने का प्रयास किया। देव-माया द्वारा उसने समग्र सेना को पराजित कर दिया। श्रीकृष्ण स्वयं पहुँचे । उन्होंने तस्कर को ललकारा-''घोड़ा छोड़ दो।" तस्कर ने निडरता से उत्तर दिया- "यदि हिम्मत है तो लड़कर ले लो ।" श्रीकृष्ण-"तस्कर ! मैं रथ पर चढ़ा हूँ, तुम भूमि पर हो, पदाति हो, तुम्हारे पास कोई शस्त्र भी नहीं है । यह युद्ध कैसे हो सकता है ?"
तस्कर-"मुझे न शस्त्र चाहिए, न रथ चाहिए. मैं ऐसे ही लडूंगा।" श्रीकृष्णयह नहीं हो सकता । मैं निःशस्त्र से नहीं लड़ सकता। मैं रथ पर बठा रहूँ और प्रतिद्वन्द्वी भूमि पर हो, ऐसा युद्ध मैं नहीं लड़ता । मैं इसे अधर्म-युद्ध मानता हूँ। तुम घोड़ा ले जाओ।"
श्रीकृष्ण का यह उदात्त एवं वीरोचित व्यवहार देखकर देव बड़ा प्रसन्न हआ। वह अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुआ। उसने वासुदेव कृष्ण से कहा-मैं आपके धर्म-संगत, न्यायानुमोदित व्यवहार से, कृतित्व से बहुत प्रभावित हूँ। आप कोई वरदान मांगिए।"
श्रीकृष्ण-"वैसे तो मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, किन्तु, इस समय द्वारिका में बहुत बीमारियां फैल रही हैं। उन्हें मिटाने का कोई उपाय बताएं।" रोग नाशिनी भेरी
देव ने श्रीकृष्ण को एक भेरी देते हुए कहा-'इस भेरी का यह प्रभाव है कि इसके बजाते ही, ज्योंही इसकी ध्वनि कानों में पड़ी, सभी, रोग दूर हो जायेंगे। फिर छः मास तक कोई रोग नहीं होगा।"
श्रीकृष्ण ने सहर्ष भेरी स्वीकार की। उसे बजाया । लोग रोग-मुक्त हो गये। भेरी
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