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तत्त्व : आचार : कथानुयोग कथानुयोग-वासुदेव कृष्ण : घट जातक ५३७
कुछ समय बाद एक महान् ऋद्धिशाली देव अपना स्वर्ग का आयुष्य पूर्ण कर देवकी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। यथा समय देवकी ने पुत्र को जन्म दिया। देवकी की चिर अभिलषित भावना पूर्ण हुई । पुत्र का नाम गजसुकुमाल रखा गया। वह अत्यन्त स्नेह तथा वात्सल्य पूर्वक उसका लालन-पालन करती, उमे खिलाती, उसकी बाल क्रीड़ाएँ देख-देखकर मन में बड़ी हर्षित होती, आह्लादित होती।
विवाह
गजसुकुमाल क्रमशः बड़ा हुआ, युवा हुआ। पिता वसुदेव ने उसका विवाह द्रुम नामक राजा की पुत्री प्रभावती के साथ कर दिया।
एक दिन वासुदेव कृष्ण की दष्टि सोमिल नामक ब्राह्मण की सोमा नामक कन्या पर पड़ी, जो बडी सुकूमार, सौम्य और सुन्दर थी। कृष्ण ने गजसकमाल के लिए किया। कुमार गजसुकुमाल की कोई आकांक्षा नहीं थी, पर, बड़े भाई और साथ ही मां के आग्रह से उसने यह सम्बन्ध स्वीकार कर लिया। सोमा के साथ उसका पाणिग्रहण-संस्कार सम्पन्न हो गया। वैराग्य : प्रव्रज्या
भगवान् अरिष्टनेमि उस समय द्वारिका पधारे। गजसुकुमाल भी भगवान् को वन्दन-नमन करने गया । भगवान् ने धर्मदेशना दी । सबके साथ गजसुकुमाल ने भी भगवान् का उपदेश सुना। उसके मन में तीव्र वैराग्य-भाव जागा । उसने प्रवजित होने का भाव प्रकट किया। माता ने, अग्नज ने उसे बहत समझाया, पर, वह अपने निश्चय पर अटल एवं अडिग रहा। प्रवजित हो गया। भगवान अरिष्टनेमि से आदेश प्राप्त कर वह उसी दिन सन्ध्या-वेला में श्मशान में गया और वहाँ कायोत्सर्ग-देहातीत ध्यानावस्था में लीन हो गया। विमुक्ति
ब्राह्मण सोनिल समिधा, दान आदि लेकर वन से आ रहा था। उधर से निकला। उसकी दृष्टि ध्यान-मग्न गजसुकुमाल पर पड़ी। उसने उसे पहचाना। समीप आया। यह देखकर बड़ा दुःखित हुआ कि गजसुकुमाल ने श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली है। उसके मन में क्रोध उत्पन्न हआ । वह विचार ने लगा-इसने मेरी बेटी की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ किया है। यदि प्रव्रज्या ही लेनी थी तो इसने विवाह कर मेरी पुत्री का जीवन क्यों नष्ट किया। उसका क्रोध बढ़ता गया। उसमें प्रतिशोध का भाव जागा। उसने चारों ओर अपनी दष्टि फैलाई। कोई नहीं दीखा। वह क्रोध के कारण अपना विवेक खो चुका था। पास ही में एक तलैया थी। उसमें से उसने गीली मिट्टी ली। गजसुकुमाल के मस्तक पर मिट्टी की पाल बाँधी । जलती हुई चिता में से धधकते हुए अंगारे उठाये और उस पाल के भीतर उन्हें भर दिया। गजसुकुमाल का मुंडित मस्तक अंगारों से जल उठा । असह्य पीड़ा हुई, किन्तु, गजसुकुमाल तो एक धीर तथा वीर पुरुष था । आत्मबल संजोया, स्थित हुआ, आत्मभाव में सुदृढ़ हुआ, समता पूर्वक उस असीम वेदना को सहता गया। परिणामों की धारा इतनी उच्च शुद्धावस्था तक चली गई कि देह छूट गई, वह मुक्त हो गया।
दूसरे दिन वासुदेव कृष्ण अपने परिजनवृन्द के साथ भगवान् अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ
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