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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : ३
भगवान् -
[ - "देवकी ! मुनि की भविष्यवाणी असत्य नहीं हुई । अब तक तुम्हारे सातों पुत्र जिन्दे हैं ।
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भगवान् ने सारा रहस्य प्रकट करते हुए बताया कि किस प्रकार उसके शिशुओं की सुलसा के मृत बच्चों से बदला बदली की जाती रही ।
भगवान् बोले – देवकी ! जिन मुनियों को आज तुमने भिक्षा दी है, वे तुम्हारे ही पुत्र हैं, जो सुलसा द्वारा पालित, पोषित हुए और बाद में दीक्षित हो गये ।
मातृ-हृदय : वात्सल्य
देवकी भाव-विह्वल हो गई । उसने छःओं मुनि- पर्याय - स्थित पुत्रों को वन्दन-नमन किया । उसका मातृ-हृदय वात्सल्य सागर में अवगाहन करने लगा । सहज ही उसके मुँह से निकल पड़ा--"पुत्रो ! तुमने श्रमण-दीक्षा स्वीकार की, यह बहुत उत्तम किया। मुझे इससे बड़ा हर्ष है किन्तु मेरा मातृत्व तो अब तक विफल ही रहा । सात पुत्रों को जन्म दिया, किसी एक को भी अपने अंक में नहीं खिला सकी, एक को भी अपना स्नेह नहीं दे सकी । "
भगवान् ने देवकी को उसके पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा कि तुमने तब अपनी सौत के सात रत्न चुरा लिये थे । जब तुम्हारी सौत ने बहुत रुदन क्रन्दन किया तो तुमने उसे एक रत्न तो लौटा दिया, पर, छ: अपने पास ही रखे। उसके फलस्वरूप तुम्हारे छः पुत्र रत्न तुमसे पृथक् रहे । सातवाँ समक्ष रह सका ।
देवकी ने अपने पूर्वाचीर्ण अशुभ कर्म की निन्दा की, भगवान् अरिष्टनेमि का वन्दननमन किया। अपने प्रासाद में लौट गई।
देवकी का मन खिन्न था । वह उदास थी । वासुदेव कृष्ण अपनी मां के पास आये, पूछा - "मां ! तुम व्यथित क्यों हो ? "
देवकी - "बेटा ! मेरा जीवन निष्फल गया ।"
कृष्ण - मां ! क्या हुआ ? ऐसा क्यों कहती हो ?"
देवकी - "पुत्र ! उस नारी का भी क्या कोई जीवन है, जो अपनी कोख से उत्पन्न पुत्रों को गोद में न खिला सकी, न उन्हें अपना मातृत्व प्रसूत वात्सल्य ही दे सकी, जिसके घर का आंगन उसके बच्चों की किलकारियों से, बाल लीलाओं से नहीं गूंजा। मेरी दृष्टि में वह घर श्मशान तुल्य है ।'
"
श्रीकृष्ण ने माता के हृदय की वेदना का अनुभव किया, पूछा- -"मां ! तुम्हारी यह आकांक्षा कैसे पूर्ण हो सकती है ?"
देवकी - "अतिमुक्तक मुनि ने भविष्यवाणी की थी कि देवकी ! तुम आठ पुत्रों की माता बनोगी। मेरे अब तक सात ही पुत्र हुए हैं। आठवाँ पुत्र नहीं हुआ ।"
गजसुकुमाल का जन्म
वासुदेव कृष्ण अपनी मां की भावना समझ गये । उन्होंने कहा - "मां ! तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूरा होगा ।"
तत्पश्चात वासुदेव कृष्ण ने सौधर्मेन्द्र के सेनापति नैगमेषी देव की अभ्यर्थना की । देव आविर्भूत हुआ । उसने श्रीकृष्ण के मन की भावना को आंकते हुए कहा – “वासुदेव ! तुम्हारी माता के आठवाँ पुत्र होगा, किन्तु, वह यौवनावस्था में ही विरक्त होकर प्रव्रजित हो जायेगा ।"
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