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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
कथानुयोग - वासुदेव कृष्ण : घट जातक
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निर्मल, त्यागमय जीवन का अनुसरण करेगी । यों सच्चिन्तन में संसिक्त राजिमती ने दीक्षा स्वीकार कर ली ।
अरिष्टनेमि केवल चौवन दिन छद्मस्थ अवस्था में रहे । तदनन्तर उन्हें सर्वज्ञत्व प्राप्त हो गया। वे तीर्थंकर हो गये ।
एक बार का प्रसंग है, दो मुनि, जो बड़े सुकुमार एवं द्युतिमान् थे, पारणे हेतु श्रीकृष्ण की माता देवकी के यहाँ भिक्षा ग्रहण करने आये । देवकी हर्षोत्फुल्ल थी । उसने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मुनि को केसरिया लड्डू भिक्षा में प्रदान किये। मुनि भिक्षा लेकर चले
गये ।
थोड़ी ही देर बाद दो मुनि फिर पारणे हेतु भिक्षार्थ आये । देवकी ने देखा -- ये तो वैसे ही मुनि हैं, जो अभी भिक्षा लेकर गये थे । उसके मन में कुछ सन्देह भी हुआ, क्या ये पुनः आये हैं ? वह कुछ बोली नहीं । उन्हें भी श्रद्धा तथा आदरपूर्वक केसरिया लड्डू भिक्षा में दिये ।
देवकी ने दूसरी बार भिक्षा तो दी, किन्तु उसे कुछ असंगत-सा प्रतीत हुआ, जैन श्रमण एक ही घर में दूसरी बार भी भिक्षा हेतु आएं। वह इस ऊहापोह में खोई थी कि इतने में वैसे ही दो श्रमण फिर भिक्षार्थ आ गये । देवकी ने उन्हें केसरिया मोदक तो बहराये, किन्तु, वह पूछे बिना नहीं रह सकी- "मुनिद्वय ! आप दिग्भ्रमवश बार-बार यहाँ आ रहे हैं या इस बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी, विशाल समृद्ध द्वारिका में किसी अन्य घर में भिक्षा प्राप्त ही नहीं होती ?"
'शुद्ध
देवकी भावावेश में कह तो गई, किन्तु, वह मन-ही-मन पछताने लगी- उसने यह उचित नहीं किया। साधु के प्रति उसे ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिए ।
मुनिद्वय ने देवकी का वचन सुना, अपनी स्वाभाविक शान्त वाणी में कहाश्रमणोपासिके ! हम छः भाई हैं, रूप, रंग दैहिक गठन आदि में हम लगभग एक समान हैं। हम दो-दो के समूह में बेले के पारणे हेतु भिक्षार्थ निकले थे। ऐसा संभावित प्रतीत होता है, हमारे से पहले वे ही हमारे चारों भाई दो बार में आपके यहाँ शिक्षार्थ आये हों ।
देवकी की शंकासमाहित हो गई, किन्तु, एक दूसरी शंका और उत्पन्न हो गई । उसे स्मरण आया कि मुनि अतिमुक्तक ने एक बार भविष्यवाणी की थी कि देवकी ! तुम आठ पुत्रों को जन्म दोगी। वे आठों ही जिन्दे रहेंगे। उस भविष्यवाणी के प्रतिकूल में देख रही हूँ । मेरे छः पुत्रों की कंस ने हत्या कर डाली । सातवाँ पुत्र कृष्ण विद्यमान है। इन छः मुनियों का प्रसंग आते ही मेरे हृदय में मातृत्वमूलक वात्सल्य उमड़ रहा है, क्या कारण है ? किससे पूछें, कौन समाधान दे ?
देवकी इस विचार मन्थन में संलग्न थी कि उसे सहसा ध्यान आया, भगवान् अरिष्टनेमि नगर के बाहर संस्थित हैं, उन्हीं से मैं समाधान प्राप्त करूं ।
देवकी तत्काल भगवान् अरिष्टनेमि के समवसरण में गई । भगवान् को वन्दन-नमन किया। एक ओर बैठ गई । उसके मन में अनेक प्रश्न उठ रहे थे । वह उनका समाधान चाहती थी । भगवान् ने उससे कहा - "देवकी । भिक्षार्थ समागत मुनियों के प्रति तुम्हारे मन में अनेक प्रकार के भाव उठे, उठ रहे हैं ?"
देवकी - "प्रभुवर ! ऐसी ही बात है। मैं आपकी सेवा में यह पूछने आई हूँ कि मुनि अतिमुक्तक ने मेरे सम्बन्ध में जो भविष्यवाणी की थी, वह असत्य कैसे हुई ?"
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