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५३४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड:३ बलराम-"इस शंका के लिए कोई स्थान नहीं है। अरिष्टनेमि सांसारिक कामनाओं और सुखों से अतीत है। राज्य की उसे कोई आकांक्षा नहीं है। वह सर्वथा निःस्पृह है।"
श्रीकृष्ण-“चित्त-वृत्ति के परिवर्तित होते देर नहीं लगती। यदि वैसा हुआ तो ?"
आकाश-वाणी
इतने में देवों ने आकाश-वाणी की-"अरिष्टनेमि की चित्त-वृत्ति सर्वथा अपरिवर्तित रहेगी। द्वारिका का राज्य तो क्या, सारे जगत् के प्रति वे निरुकाङ्क्ष तथा निःस्पृह हैं और रहेंगे।"
बलराम और कृष्ण आकाश की ओर देखने लगे। देवों ने पुनः कहा--"तीर्थंकर नेमिनाथ द्वारा यह उद्घोषित किया गया था कि उनके उत्तरवर्ती तीर्थकर अरिष्टनेमि कुमारावस्था में ही प्रव्रज्या स्वीकार कर लेंगे; अत: वासुदेव ! अपने राज्य-सिंहासन की चिन्ता मत करो। वैसा कुछ नहीं होगा।"
श्रीकृष्ण आकाश-वाणी सुनकर राज्य छिने जाने के भय से तो निश्चिन्त हुए, किन्तु, भ्रातृ-स्नेह के नाते मोह-ममता के कारण उनको यह नहीं जचा कि अरिष्टनेमि कौमार्यावस्था में दीक्षित हो जाएं । वे चाहते थे, अरिष्टनेमि का विवाह हो, वे सांसारिक सुख भोगें, फिर दीक्षित हों। अरिष्टनेमि की वरयात्रा : वैराग्य : प्रव्रज्या
श्रीकृष्ण ने तथा पारिवारिक जनों ने बड़ा प्रयत्न किया कि अरिष्टनेमि सांसारिक जीवन-गार्हस्थ्य स्वीकार करें, पर, उन्होंने इस ओर जरा भी अभिरुचि नहीं दिखाई।
अन्त में जब अग्रज श्रीकृष्ण तथा परिजनवृद किसी भी प्रकार नहीं माने तो वे मौन रहे। श्रीकृष्ण ने मौन को स्वीकृतिसूचक माना । उन्होंने अरिष्टनेमि के विवाह की योजना बनाई। उन्होंने उग्रसेन की पुत्री राजिमती के साथ अरिष्टनेमि का विवाह निश्चित किया। सभी राजोचित तैयारियां की गई। वर यात्रा सुसज्जित हुई, प्रस्थान किया।
संयोग की बात है, एक अद्भुत घटना घटी। अरिष्टनेमि वरयात्रियों के साथ आगे बढ़े। रथ उग्रसेन के भवन के सन्निकट पहुँचा। वहाँ पशुओं का चीत्कार सुनाई दिया। अरिष्टनेमि ने सारथि से पूछा- “सारथे ! ये पशु क्यों चिंघाड़ रहे हैं ?"
सारथि-"राजकुमार ! आपकी वरयात्रा के लोगों के भोजन हेतु इन्हें यहाँ एकत्र किया गया है। इनके मांस द्वारा तरह-तरह के सुस्वादु खाद्य बनेंगे।"
अरिष्टनेमि का हृदय दयार्द्र हो गया। वे करुणा-विगलित स्वर में बोले..." मेरे अपने कारण यह निर्मम पशु-हत्या मैं नहीं होने दूंगा। मेरा रथ वापस लौटा लो। मुझे विवाह करना स्वीकार नहीं है, जिसका आरंभ ही ऐसी घोर हिंसा से होता है।' उनका अन्तःस्थित वैराग्य भाव जागरित हो उठा। उन्होंने इस मोहमय संसार का परित्याग करने का निश्चय किया। उनके वैराग्योद्दीप्त तेज से सबके सब अभिभ त हो गये । किसी में उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं हुई। सारथि ने रथ वापस लौटा लिया। वे प्रवजित हो गये । उनके परम विरक्त, संयमानुरत व्यक्तित्व का राजिमती पर भी प्रभाव पड़ा । उसे भी भोगमय जीवन से विरक्ति हो गई। उसने मन-ही-मन निश्चय किया-जहाँ जागतिक सुख-समृद्धिमय जीवन में वह अरिष्टनेमि की सहभागिनी होने को उत्सुक थी, अब वह उनके परम पवित्र, उज्ज्वल
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