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________________ ५३० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ महारानी रुक्मिणी ने एक अत्यन्त सुन्दर, ओजस्वी तथा द्युतिमान् पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रद्युम्न हुआ। धूमकेतु देव द्वारा प्रद्युम्न का अपहरण एक बार वासुदेव कृष्ण अपने पुत्र प्रद्युम्न को गोद में लिये खिला रहे थे। एक दुर्घटना घटित हो गई। धूमकेतु देव प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म का शत्रु था। वह देवमाया द्वारा रुक्मिणी का रूप बनाकर श्रीकृष्ण के हाथ से प्रद्युम्न को ले गया। __ कुछ देर बाद रुक्मिणी आई और अपने पति से पुत्र को माँगा। श्रीकृष्ण हैरान रह गये, बोले-“अभी तो तुम आई थी, प्रद्युम्न को ले गई थी। पुन: कैसे माँगती हो?" रुक्मिणी बोली-"प्राणनाथ ! मैं नहीं आई थी। मैं तो अभी आई हूँ। हमारे साथ धोखा हुआ है । बालक का किसी शत्रु देव द्वारा अपहरण हो गया है।" कृष्ण, रुक्मिणी तथा सभी यादव वृन्द अत्यन्त दुःखित हो गये। बालक की सर्वत्र खोज की गई, पर, वह कहीं नहीं मिला। धूमकेतु देव शिशु को वैताढ्य पर्वत के भूतरमण नामक उद्यान में ले गया। वहाँ उसे टंक शिला पर रखा। देव ने चाहा कि शिशु को इम शिला पर पटक कर मार दूं, पर, उसने सोचा-ऐसा करने से बालक को बड़ा कष्ट होगा, वह रोयेगा, चीखेगा और वैसा होने से संभव है, मेरे मन में करुणा उत्पन्न हो जाए; इसलिए अच्छा यही है, मैं इसे यहीं छोड़ दूं। यह क्षुधा, तृषा से तड़प-तड़प कर स्वयं ही यहाँ मर जायेगा। प्रद्युम्न निरुपक्रम-आयुष्ययुक्त था, चरम शरीरी था। सुरक्षित रहा। प्रातःकाल हुआ। कालसंवर नामक विद्याधर राजा अग्निज्वाल नगर से चलकर अपने विमान द्वारा अपनी राजधानी की ओर जा रहा था। बालक पर उसकी दृष्टि पड़ी। उसने उसे गोद में लिया। अपनी रानी कनकमाला को सौंपा। उसने उसका लालन-पालन किया। वह क्रमशः बड़ा होता गया। सोलह वर्ष का हो गया। प्रद्युम्न का द्वारिका-प्रत्यागमन प्रद्युम्न अत्यधिक सौन्दर्यशाली, रूपवान् तथा तेजस्वी था। कालसंवर विद्याधर की पत्नी कनकमाला के मन में, जिसे वह अपनी मां समझता था, बहुत आदर करता था, कामात्मक विकार देखा । वह ग्लानि युक्त हो गया। वह उससे बोला- "आप तो मेरी मां हैं, मेरे लिए पूज्य हैं, बड़ा दुःख है, आप ऐसा सोचती हैं।" कनकमाला ने कहा-"वह उसकी मां नहीं है। उसने तो केवल उसे पाला पोसा है। वह तो द्वारिकाधीश वासुदेव कृष्ण का पुत्र है।" प्रद्युम्न बोला-"पालन-पोषण करने वाली भी माता होती है, मातृ-तुल्य होती है। आपको मैं अपनी माता समझता हूँ।" कनकमाला कामान्ध थी। उसका मानसिक विकार कैसे मिटता। तब प्रद्युम्न ने बड़ी बुद्धिमत्ता-पूर्वक, युक्ति-पूर्वक उससे पीछा छुड़ाया और वह अपने घर द्वारिका लौट आया। उसके आगमन से द्वारिका में सर्वत्र खुशी छा गई। यवनद्वीप के व्यापारी : रत्नकम्बल एक बार यवनद्वीप के कतिपय व्यापारी समुद्री मार्ग से व्यापारार्थ द्वारिका आये। अपना दूसरा माल तो उन्होंने वहाँ बेच दिया, पर, रत्नकम्बलों का विक्रय नहीं किया। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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