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५२९ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ माया थी, जिससे हम प्रवंचित हो गये। प्रधान सेनापति काल कुमार के मरने से सबकी हिम्मत टूट गई । वे वापस लौट आये।
सब राजगह पहुँचे। बड़े खेद के साथ सारी घटना जरासन्ध को बतलाई । जरासन्ध बहुत शोकान्वित हुआ। वह छाती पीट-पीट कर दहाड़ने लगा।
यादव आगे बढ़ते गये । जब उन्हें कालकुमार की मृत्यु का समाचार ज्ञात हुआ, वे बड़े प्रसन्न हुए। चारण मुनि अतिमुक्तक द्वारा भविष्य-कथन
एक बार मार्ग में यादव पड़ाव डाले हुए रुके थे। उसी समय अतिमुक्तक चारण मुनि वहाँ आये । समुद्र विजय ने उन्हें वन्दन किया और पूछा-'भगवन् ! इस संकट से हम कैसे बचेंगे ?"
मुनि-“राजन् ! तुम जरा भी मत डरो। तुम्हारा पुत्र अटिष्टनेमि परम भाग्य-शाली एवं अपरिमित बल-सम्पन्न है । वह बाईसवाँ तीर्थंकर होगा। कृष्ण नवम वासुदेव है, बलराम नवम बलभद्र है। कृष्ण द्वारिका नगरी की स्थापना करेगा, वहाँ निवास करेगा। वह जरासन्ध का वध करेगा। भरतार्घ का अधिपति होगा।"
समुद्रविजय मुनि के वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। मुनि को सभक्ति वन्दन नमन किया और विदा किया।
यादव आगे बढ़ते-बढ़ते सौराष्ट्र देश में आये। रैवतक पर्वत के वायत्य-पश्चिमोत्तर कोण में अपना पड़ाव डाल दिया।
वहाँ श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा ने दो पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम क्रमशः भानु और भामर हुए। जन्म से ही दोनों शिशु बड़े तेजस्वी और सुन्दर थे। यादव-शिविर में अत्यन्त हर्ष एवं उल्लास छा गया। द्वारिका की रचना
निमित्तज्ञ क्रौष्टुकि ने जैसा बताया था, शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण ने समुद्र की अर्चना की। उन्होंने तेले की तपस्या की। तीसरी रात के समय लवण समुद्राधिपति देव सुस्थित प्रकट हुआ। उसने कृष्ण को पांचजन्य शंख, दिव्य रत्नों का हार और दिव्य वस्त्र अर्पित किये । बलराम को सुघोष नामक शंख भेंट किया । श्रीकृष्ण को सम्बोधित कर उसने कहा - "मैं लवण-समुद्र का अधिष्ठातृ-देव सुस्थित हूँ। आपने मुझे किस हेतु स्मरण किया ?"
श्रीकृष्ण--"देव ! मैंने श्रवण किया है, अतीत काल के वासुदेव की यहाँ पर द्वारिका नगरी थी। तुमने उसे जलावृत्त कर दिया। मैं चाहता हूँ, मेरे लिए तुम वैसी ही एक नगरी का निर्माण करो।"
श्रीकृष्ण का कथन सुनकर उन्हें आश्वस्त कर देव वहाँ से चला गया । वह इन्द्र के पास उपस्थित हुआ। सारा वृत्तान्त कहा। इन्द्र ने कुबेर को नगरी के निर्माण की आज्ञा दी। कुबेर ने नगरी की रचना की।
___ कुबेर द्वारा निर्मित द्वारिका बारह योजन आयत-लम्बी तथा नौ योजन विस्तीर्ण --चौड़ी थी। अनेक रत्नों से विभूषित थी। उसके भीतर एक सुदढ़ दुर्ग था, जो अठारह हाथ ऊँचा और नौ हाथ पृथ्वी के भीतर गहरा था, जिसके चारों और बारह हाथ चौड़ी खाई थी। इकमंजिले, दुमंजिले, तिमंजिले लाखों भवन थे। दशाह राजाओं के अलग-अलग
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