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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
कथानुयोग – वासुदेव कृष्ण : घट जातक
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एक नगरी की संस्थापना कीजिए। वहीं निवास कीजिए । ऐसा योग है, आपके पश्चिम में प्रयाण करते ही आपके शत्रु क्षीण होने लगेंगे । उनका नाश शुरू हो जायेगा । "
समुद्रविजय - "निमित्तज्ञ ! यह बतलाओ, हम लोग नगरी किस स्थान पर
बसाएँ ?'
क्रोष्टुकि - "मार्ग में चलते-चलते जहाँ सत्यभामा के दो पुत्र प्रसूत हों, उसी स्थान पर आप नगरी की स्थापना करें। वहाँ निशंक होकर रहें ।"
ज्योतिर्विद् कौटुकि के फलादेश को मानते हुए समुद्रविजय ने परिवार सहित मथुरा से प्रस्थान किया । उग्रसेन भी उनके साथ हुआ । मथुरा से ग्यारह कोटि यादव तथा शौर्यपुर से सात कोटि यादव - कुल अठारह कोटि यादव विन्ध्याचल की ओर चल पड़े । कालकुमार की मृत्यु
उधर राजा सोमक जरासन्ध के पास पहुँचा | सारे समाचार कहे । जरासन्ध की क्रोधाग्नि भड़क उठी। उसकी आँखों में खून उतर आया। पिता को जब यों कोपाविष्ट देखा तो राजकुमार कालकुमार ने कहा - "तात ! मुझे आदेश दीजिए, मैं यादवों को छोड़ गा नहीं। आग से भी, सागर से भी उन्हें खींच कर बाहर निकाल लूंगा और उनका वध करूँगा । यदि ऐसा न कर सका तो आपको अपना मुँह नहीं दिखलाऊँगा ।
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जरासन्ध को कालकुमार की वीरोक्ति से सन्तोष हुआ । उसने पाँच सौ राजाओं के अधिनायकत्व में एक विशाल सेना उसे दी और कहा -"जाओ, यादवों को कुचल डालो ।' कालकुमार के भाई यवन तथा सहदेव भी उसके साथ हो लिये ।
कालकुमार विशाल सेना के साथ चल पड़ा । वह यादवों का पीछा करता करता विन्ध्याचल पर पहुँच गया । वासुदेव कृष्ण के रक्षक देवता रक्षार्थ चिन्तित हुए । उन्होंने देव माया द्वारा एक विशाल दुर्ग की रचना की, जिसके केवल एक ही द्वार था ! उसमें जगह-जगह अनेक चिताएँ धू धू कर जल रही थीं। एक बुढ़िया बाहर बैठी रो रही थी । कालकुमार ने उस बुढ़िया से पूछा - "वृद्धे ! तुम रो क्यों रही हो ?
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वृद्धा बोली - "कालकुमार से भयभीत होकर समस्त यादव अग्नि में प्रवेश कर गये हैं। मैं उनके विरह में दुःखित हूँ, रुदन क्रन्दन कर रही हूँ। मेरा भी जीवन अब शेष नहीं रहा। मैं भी अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी ।"
यों कहकर वह बुढ़िया चिता में कूद गई ।
कालकुमार गवद्धित था । उसे अपनी प्रतिज्ञा याद आई कि वह यादवों को यदि वे आग में भी छिप जायेंगे तो भी निकाल लेगा, उन्हें समाप्त कर देगा ।"
भावावेश बुद्धि-भ्रंश कर देता है । कालकुमार यह भूल गया कि अग्नि में कूद जाने के बाद, जल जाने के बाद भी क्या कोई निकाला जाता है । वह दर्पान्ध एवं क्रोधान्ध होकर अग्नि में (चिता में ) कूद पड़ा । सबके देखते-देखते जलकर राख हो गया । सब बहुत ही दुःखित हुए। रात हो गई थी। वहीं उन्होंने विश्राम किया ।
प्रातःकाल हुआ। सभी सैनिक उठे । देखा तो प्रतीत हुआ, न वहाँ कोई दुर्ग है और नचिताएँ ही हैं। सभी शोक-मिश्रित आश्चर्य से डूब गये - यह क्या हुआ, कैसे हुआ ?
उनके गुप्तचरों ने आकर उन्हें बताया कि यादव आगे निकल गये हैं । सब उदास हो गये । वृद्धों एवं समझदार पुरुषों ने अनुभव किया - यह कोई देव
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