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________________ ५२६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ था। वह निरपराध, निरीह बच्चों का जिस निर्दयता से घात करता रहा, उसे देखकर, सुनकर एक दानव का भी हृदय काँप उठे । ऐसे हत्यारे के खन से रंगे हाथों से बच्चे को बचा लेने हेतु उसे छिपा लेना, अन्यत्र पहुँचाना, पालन-पोषण की व्यवस्था करना न अधर्म है और न अनीति ही । ऐसे पापिष्ठ अत्याचारी को मारना कोई अपराध नहीं है ।" सोमक - किन्तु, स्वामी की आज्ञा का उल्लंघन निश्चय ही नीति-विरुद्ध है ।" कृष्ण – “सोमक ! जरा सुन लो कौन स्वामी ? किसका स्वामी ? हम किसी को स्वामी नहीं मानते । " सोमक" तरुण ! जरासन्ध अधमं की है। समग्र दशाहों का, दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का स्वामी है । आप सब उसके आज्ञानुसरण हेतु बाध्य हैं ।" कृष्ण - "हमने आज तक सौजन्यवश उसकी इच्छा एवं भावना को आदर दिया है । कंस जैसे अत्याचारी का पक्ष ले लेने से अब हम उस सम्बन्ध को भग्न करते हैं ।" सोमक समुद्रविजय की ओर अभिमुख होकर बोला - "यह तरुण बहुत उद्दण्ड है, कुल - कलंक है ।" कुल-कलंक शब्द सुनते ही अनावृष्टि चुप नहीं रह सका । वह क्रोधाभिभूत हो उठा । उसने कहा----" -- "सोमक ! आप धृष्टता से बात करते हैं। ऐसे मर्यादाहीन वचन आप बोल रहे हैं, जो हमारे सम्मान के प्रतिकूल है । आप जिस गर्व से दृप्त होकर बात कर रहे हैं, उसे हम ध्वस्त कर देंगे ।" राजा सोमक समझ गया, स्थिति उलटी जा रही है । उसकी बात जम नहीं रही है । वह चुपचाप वहाँ से खड़ा हुआ, समुद्रविजय से बिदा ली और रवाना हो गया । ज्योतिविद् क्रोष्टुकि घटना तो घटित हो गई । उसके भावी परिणाम को सोचकर समुद्रविजय चिन्तित हुआ। दूसरे दिन उसने अपने समग्र भाइयों को अपने पास एकत्र किया । भविष्य द्रष्टा ज्योतिर्विद् क्रोष्टुकि को बुलाया और उससे पूछा - "निमित्तज्ञ ! तीन खण्ड के अधिपति जरासन्ध से हमारा वैमनस्य हो गया है, उसका क्या नतीजा होगा ? " कौटुकि - "अहंकार से दृप्त और बल से उद्धत पुरुषों से शत्रुता होने का एक ही परिणाम होता है - युद्ध । वही होगा ।" समुद्रविजय - " ज्योतिर्विद् ! यह तो मुझे ही ज्ञात है - युद्ध होगा, पर, उसका परिणाम क्या होगा ? " क्रोष्टुकि - "कृष्ण द्वारा जरासन्ध का वध ।" कौटुकि द्वारा प्रतिपादित फलादेश श्रवण कर सभी उपस्थित यादवों को परितोष हुआ । समुद्रविजय तब चिन्तन की गहराइयों में डुबकियाँ लगाने लगा । उसने निमितज्ञ से फिर पूछा - "हमारे साधन सीमित हैं । जरासन्ध अपरिसीम-साधन सम्पन्न है । फिर यह बात कैसे बनेगी ? यदि यह बात सच भी निकली तो मथुरा तो ध्वस्त विध्वस्त हो ही जायेगी, प्रजाजनों को भी बड़ा कष्ट होगा ।" 1 समुद्रविजय ने जो बात कही, बड़ी मार्मिक और युक्तियुक्त थी । कौष्टिक ने पुनः ग्रह- गणना की। उसने कहा - "राजन् ! आप अपने समस्त पारिवारिक जनों को साथ लेकर पश्चिम दिग्वर्ती समुद्र की ओर प्रयाण कीजिए। उसी दिशा में Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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