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________________ ५२४ आगम और त्रिपिटक : [खण्ड : ३ समुद्रविजय आदि वसुदेव के ज्येष्ठ बन्धु यह देखकर आश्चर्यचकित हो गये और उन्होंने सारी स्थिति जानने की उत्सुकता व्यक्त की । वसुदेव ने अतिमुक्तक मुनि की भविष्यवाणी से लेकर अब तक की सारी घटनाएँ उन्हें सविस्तार ज्ञापित की। दशाह राजाओं को यह जानकर असीम हर्ष हआ कि कृष्ण वसदेव का पूत्र है। उन्होंने उसे अपनी गोद में बिठाया. प्यार किया। बलराम की भरि-भरि प्रशंसा की। उसी समय देव की कृत्तनासा कन्या के साथ वहाँ उपस्थित हुई । आज उसकी खुशी का पार नहीं था। उस चिर-वियुक्ता मां ने अपनी गोद मे बिठाया और वह स्नेह एवं वात्सल्य के महासागर में निमग्न हो गई। सभी भाइयों के नेत्रों से हर्ष के आँसू छलक पड़े। वे कहने लगे-“वसुदेव ! तुम तो बहुत बड़े योद्धा हो। एकाकी ही इस जगत् को जीतने में सक्षम हो। फिर निष्ठुर, निर्दय कंस के हाथों अपने पुत्रों की हत्याएँ कैसे देखते रहे ?" वसदेव -- "बन्धगण ! वह सकारण था।" बन्धुगण-"क्या कारण था ?" वसुदेव-"मैं वचनबद्ध था। मैंने तथा देवकी ने सात गर्भ-नव प्रसूत शिशु कंस को देते रहने का वायदा किया था।" दशाह-"यह कृत्तनासा कन्या कौन है ?" वसुदेव"यह गोपालक नन्द की कन्या है । देवकी के आग्रह से मैं अपना सातवाँ पुत्र नन्द के यहाँ दे आया था। उसके स्थान पर नन्द की नव-प्रसूता कन्या को ले आया था। यथाक्रम कंस ने उस शिशु को प्राप्त किया। उसे कन्या जानकर उससे मृत्यु-भय नहीं मानते हुए उसने उसकी नासिका छिन्न कर दी और उसे वापस देवकी को सौंप दिया।" तदनन्तर समुद्र विजय ने अपने भाइयों के परामर्श से उग्रसेन को बन्धन-मुक्त कियाउसे पिंजरे से बाहर निकाला । उग्रसेन के प्रामुख्य में सबने कंस की यथाविधि अन्त्येष्टि की। गर्वोद्धत जीवयशा कंस की रानियों ने अपने पति को जलांजलि दी, पर, रानी जीवयशा ने जलांजलि नहीं दी। वह गर्वोद्धत थी। उसने क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा की-कृष्ण, बलराम, सभी गोपालक, परिवार-परिजन युक्त समुद्र विजय आदि समग्र दशाहवृन्द को मौत के मुंह में पहुँचाने के पश्चात् ही मैं अपने पति को जलांजलि दूंगी। यदि ऐसा नहीं किया जा सका तो स्वयं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगी । यों कहकर जीवयशा मथुरा से प्रस्थान कर गई। राजा उग्रसेन पुन: मथुरा का अधिपति हुआ। उसने शुभ मुहूर्त में जो क्रोष्टुकि निमित्तज्ञ ने बताया, अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ कर दिया। कंस की विधवा पत्नी, जरासन्ध की पुत्री जीवयशा मथुरा से चलकर अपने पिता की राजधानी राजगह पहुँची। पति और पिता-नारी के ये ही मुख्य सम्बल हैं । जब पति का सम्बल टूट गया तो जीवयशा के लिए केवल पिता का सम्बल बचा था। वह रोती. विलखती जरासन्ध की उपस्थानशाला में गई। उसके मस्तक के केश खुले थे, आँखों से अनवरत आँसुओं की धारा बह रही थी। मुख पर उदासी छाई थी। पिता ने पूछा-"पुत्री ! तुम क्यों रो रही हो? तुम्हें क्या पीड़ा है ?" जीवयशा ने अपने पिता को मुनि अति पुक्तक की भविष्यवाणी से लेकर अब तक का समग्र वृत्तान्त रोते हुए कह सुनाया। राजनीति-निष्णात जरासन्ध ने कहा- "बेटी ! कंस ने भूल की। उसे चाहिए था, ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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